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करते हुए वे काल को भी महत्त्व देते हैं। हाँ, बौद्धदर्शन में क्षणस्थायी घटादि पदार्थ को भी क्षण कहा गया है। भारतीय दर्शन में जहाँ भी काल की चर्चा है वहाँ उसे कार्य की उत्पत्ति में आकाश की भाँति साधारण कारण स्वीकार किया गया है, किन्तु एकमात्र काल से कार्य की उत्पत्ति मान्य नहीं की गई है।
जैनदर्शन में भी काल को द्रव्य स्वीकार किया गया है, किन्तु कार्य की उत्पत्ति में उसे उदासीन निमित्त कारण माना गया है। प्रत्येक द्रव्य के पर्याय परिणमन में जैनदर्शन काल को कारण मानता है। जैनदर्शन में काल की विस्तृत चर्चा प्राप्त होती है। तत्त्वार्थसत्र में वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व एवं अपरत्व को काल के उपकार या कार्य कहा गया है। समस्त पदार्थों की जो काल के आश्रित वृत्ति है वह वर्तना है। वस्तु का वर्तनमात्र वर्तना है। द्रव्य उत्पत्ति अवस्था में हो, स्थिति अवस्था में हो अथवा गति अवस्था में वह जिस भी अवस्था में प्रथम समय में वर्तमान है वह काल के वर्तना नामक उपग्रह या कार्य का फल है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यों की वर्तना बहिरंग कारण की अपेक्षा रखती है और उनका बहिरंग कारण काल है। काल के वर्तन का उससे भिन्न कोई कारण नहीं है, अन्यथा अनवस्था दोष उत्पन्न होगा। द्रव्य की स्वजाति का त्याग किये बिना द्रव्य का प्रयोगलक्षण (जीव के प्रयत्न से जन्य) तथा विस्रसालक्षण (स्वभावतः उत्पन्न) विकार परिणाम कहलाता है। क्रिया परिस्पन्दात्मिका होती है। तत्त्वार्थभाष्य में गति को क्रिया कहा है तथा इसे तीन प्रकार का निरूपित किया गया है- प्रयोगगति, विस्रसागति एवं मिश्रिकागति । विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में क्रिया को द्रव्य की वह परिस्पन्दात्मक पर्याय माना है जो देशान्तर प्राप्ति में हेतु होती है तथा वह गति, भ्रमण आदि भेदों से युक्त होती है। यदि काल न हो तो क्रिया की अवधारणा घटित नहीं हो सकती। परत्व-अपरत्व शब्दों का प्रयोग काल के सन्दर्भ में ज्येष्ठ-कनिष्ठ, नया-पुराना आदि अर्थों में अथवा पूर्वभावी-पश्चाद्भावी के अर्थ में होता है। जैनदर्शन में काल अमूर्त है। वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित एवं अगुरुलघु है। वह अप्रदेशी किंवा एक प्रदेशी अर्थात् अनस्तिकाय होता है। लोक में प्रत्येक आकाश प्रदेश पर एक पृथक् कालाणु की सत्ता
बौद्धानां मते क्षणपदेन घटादिरेव पदार्थो व्यवह्रियते, न तु तदतिरिक्तः कश्चित् क्षणो नाम कालोऽस्ति...... क्षणिकः पदार्थ इति व्यवहारस्तु भेदकल्पनया। - ब्रह्मविद्याभरण, द्वितीय,
२.२० २ वर्तनापरिणामक्रियापरत्वात्वे च कालस्य। - तत्त्वार्थसूत्र, ५.२२ ३ तत्त्वार्थभाष्य ५.२२ ४ तत्त्वार्थभाष्य ५.२२
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