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________________ १५६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण १४ समाधान- स्वभाववादी इस शंका को अनुचित बताते हुए कहते हैं- "न, तदहरेव भवनस्वभावत्वात् अर्थात् जिस समय जिसकी उत्पत्ति होती है, उस समय ही उत्पन्न होना उस वस्तु का स्वभाव है। अतः स्वभाव से संबंधित आपत्ति निर्मूल है। ४. उपादान अर्थात् कारण के स्वभाव से कार्य यानी उपादेय के स्वभाव का सर्जन होता है, उपादेय के स्वभाव रूप उपकार का जनक होने से। ९५ उपादान में निहित स्वभाव के कारण ही कार्य निश्चित आकार प्रकार को प्राप्त करता है और अपने-अपने स्वभाव में अवस्थित होता है। अतः कहा है- 'सर्वे भावा: स्वभावेन स्वस्वभावे तथा तथा । १६ उदाहरणार्थ - एक विशेष प्रजाति का आम का बीज अपनी प्रजाति के आकार-प्रकार, रंग-रूप, स्वाद वाला आम उत्पन्न करता है, ऐसा करने में वह क्यों समर्थ है? तब उत्तर होगा स्वभाव के कारण। यह स्वभाव उस पेड़ के सभी आम्र फल में अभिव्याप्त होता है। इस उदाहरण में कार्योत्पत्ति में स्वभाव की कारणता अभिव्यंजित हो रही है। ५. उत्पत्ति के साथ भावों का नाश भी उनके स्वभाव से नियत देश-काल में ही होता है, क्योंकि वे उत्पत्ति और विनाश दोनों कार्यों में स्वतंत्र न होकर अपने स्वभाव के प्रति परतन्त्र होते हैं। ९७ ६. जो स्वभाव को कारण नहीं मानते हैं, उनका विरोध करते हुए स्वभाववादी कहते हैं न विनेह स्वभावेन मुद्द्रपक्तिरपीष्यते । तथाकालादिभावेऽपि नाश्वमाणस्य सा यतः । । " इस संसार में मूंग, अश्वमाष आदि का पाक भी स्वभाव के बिना नहीं होता, क्योंकि जिस वस्तु में पकने का स्वभाव नहीं है वह काल तथा अन्य कारणों के व्यापार आदि के होने पर भी परिपक्व नहीं होती। अतः स्वभाव से भिन्न अन्य हेतु से जन्य कार्य मानने पर स्वेच्छाचार की आपत्ति होगी। कडुक, अश्वमाष - पथरीले उड़द आदि को दीर्घकाल तक अग्नि, ईंधनादि का विलक्षण संयोग मिल जाए तब भी वे पाक-स्वभाव के अभाव के कारण पकने में असमर्थ होते हैं। इसलिए जो स्वभाव की कारणता को अस्वीकार कर अदृष्ट को कारण मानते हैं, वह दोषपूर्ण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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