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________________ १५४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण सम्पन्न होते हैं। सूँठ में तिक्तता और हरितकी में विरेचनशीलता का गुण स्वभाव से होता है। सूर्य का उष्ण होना, चन्द्रमा का शीतल, पर्वत का स्थिर होना और वायु का चंचल होना, स्त्री मुख पर श्मश्रु का न होना और हथेलियों में बालों का न उगना, यह सब स्वभाव से होता है। इसके अतिरिक्त भव्य - अभव्य भाव भी स्वभाव से होते हैं। नन्दीसूत्र की अवचूरि में नन्दीसूत्र की अवचूरि में स्वभाववाद इस प्रकार प्रस्तुत हुआ है- 'ते हि स्वभाववादिन एवं आहुः - इह सर्वे भावाः स्वभाववशात् उपजायंते । तथाहिमृदः कुम्भो भवति न पटादि, तन्तुभ्योऽपि पट उपजायते न कुम्भादि, एतच्च प्रतिनियतं न तथा स्वभावतामंतरेण घटकोटीसंटंकमाटीकते, तस्मात्सकलं इदं स्वभावकृतं अवसेयं । अपि चास्तामन्यत्कार्यजातं इह मुद्द्रपक्तिः अपि न स्वभावमंतरेण भवितुं अर्हति, तथाहि- स्थालींधनकालादिसामग्रीभावेऽपि न कांकटुकमुद्गानां पक्तिः उपलभ्यते। तस्मात् यद्यत् भावे भवति ( यदभावे च न भवति) तत्तदन्वयव्यतिरेकानुविधायि तत् कृतं इति स्वभावकृता मुद्द्रपक्तिः अप्येष्टव्याः ततः सकलं एवं इदं वस्तुजातं स्वभावहेतुकं अवसेयं इति । अर्थात् स्वभाववादी कहते हैं - सभी पदार्थ स्वभाव से उत्पन्न होते हैं। क्योंकि मिट्टी से कुंभ होता है पटादि नहीं, तन्तु से पट उत्पन्न होता है, कुंभादि नहीं। करोड़ों प्रयत्न करने पर भी स्वभाव के बिना यह प्रतिनियत व्यवस्था नहीं बनती, ये सभी स्वभावकृत ही जानने चाहिए। अन्य कार्य ही नहीं, मूंग का पकना भी स्वभाव के बिना संभव नहीं है। क्योंकि स्थाली, ईंधन, काल आदि सभी सामग्री होने पर भी कडु मूंग का पकना प्राप्त नहीं होता है। जिसके होने पर होना तथा जिसके न होने पर नहीं होना, यह अन्वयव्यतिरेक अनुविधान भी स्वभावकृत है। इस प्रकार सभी वस्तुओं को स्वभावहेतुक जानना चाहिए। ८ हरिभद्रसूरि विरचित लोक तत्त्व निर्णय में आचार्य हरिभद्रसूरि (७०० से ७७० ईस्वीं शती) ने पूर्वकालिक मतों का निरूपण करते हुए 'लोकतत्त्व निर्णय' में जगत् की स्वाभाविकता द्वारा 'स्वभाववाद' को उपस्थापित किया है यदसत्तस्योत्पत्तिस्त्रिष्वपि कालेषु निश्चितं नास्ति । खरशृंगमुदाहरणं तस्मात्स्वाभाविको लोकः । । " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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