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________________ ११२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण १. वर्तना- 'वृतु वर्तने' से णि प्रत्यय लगकर तच्छील अर्थ में युच् प्रत्यय के योग से वर्तन शब्द बना है। वर्तनशील ही वर्तना है। प्रत्येक पदार्थ उत्पाद-व्ययध्रौव्य के रूप में जो निरन्तर परिवर्तनशील होता रहता है, वह वर्तना है। वर्तना के संबंध में लोकप्रकाश में कहा है "दव्यस्य परमाण्वादेर्या तद्रूपतया स्थितिः। नवजीर्णतया वा सा वर्तना परिकीर्तिता।। १६४ द्रव्य की और परमाणु आदि की जो अपने स्वरूप में स्थिति है अथवा नवीनता और जीर्णता से उनकी स्थिति है, उसे वर्तना कहा गया है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यों की वर्तना बहिरंग कारण की अपेक्षा रखती है और उनका बहिरंग कारण काल है। जिस प्रकार चावलों के पकने में बहिरंग कारण अग्नि है, उसी प्रकार जीव आदि द्रव्यों की वर्तना में और उनकी सत्ता में बहिरंग कारण कालद्रव्य है। यही नहीं सूर्य आदि गमन, ऋतु-परिवर्तन आदि में भी कोई काल कारण बनता है।१६५ प्रत्येक कार्य के दो कारण होते हैं- उपादान कारण एवं निमित्त कारण। उपादान कारण में द्रव्य विशेष स्वयं अपने कार्य का कारण होता है, जबकि निमित्त कारण अन्य द्रव्य या पदार्थ हुआ करता है। यहाँ वर्तना स्वरूप कार्य के उपादान कारण तो धर्म, अधर्म, आकाश, जीव एवं पुद्गल स्वयं हैं, किन्तु निमित्त या बहिरंग कारण काल है। काल के वर्तन का अन्य कोई निमित्त कारण नहीं है। यदि उसकी वर्तना का अन्य कोई निमित्त कारण माना जाय तो अनवस्था दोष का प्रसंग उपस्थित होगा। वर्तना स्वरूप कार्य को यदि धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल एवं जीव का ही कार्य माना जाए तो उपादान कारणों की भिन्नता होने से एक प्रकार का कार्य होना संभव प्रतीत नहीं होता है। भिन्न-भिन्न उपादान कारण भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्यों को जन्म देते हैं, एक प्रकार के कार्य को नहीं। इनके वर्तना स्वरूप एक कार्य के होने में काल को निमित्त कारण स्वीकार करने पर ही इस समस्या का समाधान हो सकता है। अतः सभी द्रव्यों की वर्तना में काल द्रव्य कारण है और वर्तना काल के कार्य के रूप में लोक प्रसिद्ध है। २. परिणाम- “दव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन प्रयोगविनसालक्षणो विकारः परिणाम: विनसापरिणामोनादिरादिमांश्च।। १६६ स्वकीय जाति का परित्याग किए बिना द्रव्य में प्रयोग और विनसा से विकार आ जाना परिणाम है। द्रव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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