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________________ कालवाद ९३ अज्ञानवादियों का मन्तव्य है कि ज्ञान श्रेयस्कर नहीं है, क्योंकि ज्ञान ही विरुद्ध प्ररूपणा एवं विवाद आदि को उत्पन्न करके चित्त को कलुषित करता है जिससे संसार में अधिक समय तक परिभ्रमण करना पड़ता है जबकि अज्ञान का आश्रय लेने पर अहंकार की उत्पत्ति नहीं होती और न ही दूसरों के प्रति कलुषित भाव उत्पन्न होता है। १०४ अज्ञानवादी जीवादि नवतत्त्वों के सत्त्व असत्त्वादि सात भेद तथा उत्पत्ति के चार भेद मानते हुए कुल ६७ भेद स्वीकार करते है १०५ सत्त्व असत्त्व सदसत्त्व अवाच्यत्व सदवाच्यत्व असदवाच्यत्व सदसदवाच्यत्व जीव के इन ७ भेदों के समान ही अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, पुण्य, पाप तथा मोक्ष के भी ७-७ भेद होने से ७x९ ६३ भेद होते हैं। उत्पत्ति के सत्, असत्, सदसत्त्व, अवाच्यत्व इन चार भेदों को मिलाकर ६७ भेद बनते हैं। जीव १०७ विनयवादी - जो मात्र विनय से ही स्वर्ग या मोक्ष की अभिलाषा रखते हैं, वे मिथ्यादृष्टि विनयवादी है। १०६ इनका वेष, आचार तथा शास्त्र निश्चित नहीं है। ' पूज्यपाद देवनन्दि ने सभी देवों और सभी सिद्धान्तों के प्रति समदृष्टि रखने वालों ( समान समझने वालों) को वैनयिक कहा है। १०८ शीलांकाचार्य ने विनय से मोक्ष मानने वाले गोशालक मत के अनुयायियों को वैनयिक कहा है। १०९ जबकि षड्दर्शनसमुच्चय की टीका में गुणरत्नसूरि ने वशिष्ठ, पराशर, वाल्मिकि, व्यास, इलापुत्र, सत्यदत्त आदि को वैनयिक बताया है। १० सबके प्रति विनय करने के कारण ये सत्-असत् में या श्रेय-अश्रेय भेद नहीं करते। Jain Education International विनयवादी ने देवता, राजा, साधु आदि आठों के मन, वचन, काय और देश - कालानुसार दान रूपी चार भेद करते हुए कुल बत्तीस भेद माने हैं। १११ देवता मन = वचन काय For Private & Personal Use Only दान www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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