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________________ कालवाद ८५ आहार-विहार की व्यवस्था देखी जाती है। काल तुष्टि को ओघ तुष्टि भी कहा गया है। योगी काल की अपेक्षा रखकर ही कैवल्य की प्राप्ति करता है।७२ योगदर्शन में काल एवं उसकी कारणता योग दर्शन के प्रणेता महर्षि पतंजलि ने काल के संबंध में कुछ भी निरूपण नहीं किया है, किन्तु उनके द्वारा रचित योगसूत्र के तृतीय पाद के ५२वें सूत्र (क्षणतत्क्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम्) पर उपलब्ध व्यास भाष्य में काल का किंचित् विवेचन प्राप्त होता है। वे क्षण एवं क्रम की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि एक परमाणु पूर्व देश (स्थान) को छोड़कर उत्तर देश को जितने समय में प्राप्त होता है, वह काल क्षण कहलाता है। इस क्षण के प्रवाह का विच्छेद न होना ही क्रम कहलाता है। क्षण वास्तविक है तथा क्रम का आधार है। क्रम अवास्तविक है क्योंकि दो क्षण कभी भी साथ नहीं रहते हैं। दो साथ में रहने वाले क्षणों का क्रम नहीं होता है। पहले वाले क्षण के अनन्तर दूसरे क्षण का होना ही क्रम कहलाता है, इसलिए वर्तमान एक क्षण ही वास्तविक है, पूर्वोत्तर क्षण नहीं। अनेक क्षणों का समाहार नहीं हो सकता। मुहूर्त, अहोरात्र आदि जो क्षण समाहार रूप व्यवहार है, वह बुद्धि कल्पित है, वास्तविक नहीं। व्यास भाष्य पर योगवार्तिककार विज्ञानभिक्षु योगमत को स्पष्ट करते हुए कहते हैं-इदानी क्षणातिरिक्त: कालो नास्ति मुहूर्तादिरूपो महाकालपर्यन्त इति...। क्षणेषु तत्क्रमेषु चाव्यवहितानन्तर्यरूपेषु वस्तुभूत: समाहारो मिलनं नास्ति; अतो मुहूर्ताहोरात्रादयो बुद्धिकल्पितसमाहार एवेत्यर्थः। तात्पर्य यह है कि मुहूर्त से लेकर महाकाल पर्यन्त जो काल है वह बुद्धि कल्पित समाहार है, क्षण के अतिरिक्त कोई वास्तविक काल नहीं है। विभिन्न क्षणों में अव्यवहित आनन्तर्य रूप जो क्रम है, उनका वास्तविक समाहार या मिलन नहीं होता है। काल और दिक् को सांख्यदर्शन की भाँति विज्ञानभिक्षु ने आकाश से ही उपपन्न स्वीकार किया है। पूर्व मीमांसा में काल यद्यपि जैमिनि ने मीमांसा सूत्र में काल तत्त्व के संबंध में कोई उल्लेख नहीं किया है। किन्तु पार्थसारथि मिश्र की शास्त्रदीपिका पर टीका करते हुए पं. रामकृष्ण ने युक्तिस्नेहप्रपूरणी सिद्धान्तचन्द्रिका में काल के संबंध में मीमांसक मत का प्रतिपादन करते हुए वैशेषिक दर्शन की मान्यताओं को ही स्वीकार किया है। वैशेषिक दर्शन के द्वारा मान्य काल तत्त्व के संबंध में मीमांसक मत का इतना ही भेद है कि वैशेषिकों ने जहाँ काल को परोक्ष माना है वहाँ मीमांसक मत में उसे प्रत्यक्ष माना गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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