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जैनदर्शन में कारण- कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
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जिस प्रकार की अग्नि लोहे में संक्रान्त होती है। " इसलिए विश्व काल के अधीन है और काल शिव के अधीन है।
काल ईश्वररूप है, जो अप्रिय, प्रिय एवं अचिंतित वस्तुओं से प्राणियों को संयोजित करता है और वियोजित करता है। २७ काल सभी परिवर्तनों का आधार है, यथा - युवा का वृद्ध होना, बलवान का दुर्बल होना, लक्ष्मीपति का कंगाल होना, सनाथ का अनाथ होना तथा दाता से भिखारी बनना आदि । जन्म-मरण, सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी-वर्षा आदि सभी कार्य काल द्वारा संचालित होते हैं। " शिवपुराण में काल के संबंध में विस्तारपूर्वक वर्णन उपलब्ध है। "
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विष्णुपुराण में भी काल का विवेचन प्राप्त होता है। सृष्टि-प्रक्रिया का प्रतिपादन करते हुए 'काल' के संबंध में अनेक तथ्य प्रकट हुए है, यथा- परमब्रह्म का प्रथम स्वरूप पुरुष है, अव्यक्त (प्रकृति) और व्यक्त (महदादि) उसके दूसरे रूप हैं तथा काल उसका परम (प्रधान) रूप है। प्रधान और पुरुष सृष्टि एवं प्रलयकाल में संयुक्त और वियुक्त होते हैं, उसी रूपान्तर का नाम 'काल' है। कालस्वरूप भगवान् अनादि हैं और इनका अन्त भी नहीं होता । अतएव संसार की उत्पत्ति, पालन और अन्त (प्रलय) नहीं रुकते, किन्तु प्रवाह रूप से सदा होते ही रहते हैं। प्रलयकाल में प्रधान (प्रकृति) को गुण की साम्यावस्था में स्थित हो जाने पर तथा पुरुष के प्रकृति से अलग स्थित होने पर श्री विष्णु भगवान का कालस्वरूप प्रवृत्त होता है। २१
श्रीमद्भागवत में काल के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया कि जो सत्त्व, रज और तम नामक गुणत्रय के आकार वाला होता है, निर्विशेष होता है। अप्रतिष्ठित अर्थात् आदि अन्त से रहित होता है, वह काल है । पुरुषविशेष ईश्वर उसी काल को उपादान कारण बनाकर अपने आप से विश्वरूप सृष्टि की रचना करता है। काल के इस स्वरूप का उल्लेख विदुर के द्वारा प्रश्न किए जाने पर मैत्रेय ने उत्तर देते हुए किया है
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यदाऽऽत्थ बहुरूपस्य हेतुरद्भुतकर्मणः ।
कालाख्यं लक्षणं ब्रह्मन्यथा वर्णय नः प्रभो ।।
गुणव्यतिकराकारो निर्विशेषोऽप्रतिष्ठितः ।
पुरुषस्तदुपादानमात्मानं लीलयाऽसृजत् ।।
श्रीमद्भागवत की वंशीधरी टीका में स्पष्ट किया गया है कि ईश्वर सृष्टि की रचना कालाख्य निमित्त से करता है
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