SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण साथ काल को भी साधारण कारण स्वीकार किया। काल को असाधारण मानने वाले कालवादियों का मत वेद आदि विभिन्न ग्रन्थों में निरूपित हुआ है, उसे यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है। वेद में कालवाद के तत्त्व अथर्ववेद में १९वें काण्ड के ५३-५४ वें सूक्त में काल की महिमा का वर्णन है। इसी कारण ये सूक्त 'काल-सूक्त' के नाम से प्रसिद्ध हैं। ५३वें सूक्त में काल को रथाश्व के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहा है कि समस्त लोक अश्वरथ के चक्र हैं। इस सूक्त के ऋषि का कथन है कि काल ही परब्रह्म है। यह कालात्मक ब्रह्म चराचरात्मक विश्व की रचना और नाश करता हुआ भी स्थिर रहता है। धुलोक और प्राणियों को आश्रय देने वाली पृथिवी को काल ने ही प्रकट किया है तथा भूतभविष्य-वर्तमान भी इस काल के ही आश्रित हैं।२ काल की प्रेरणा से ही सूर्य इस विश्व को प्रकाश देता है और काल से ही सब प्रजा अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त कर प्रसन्न होती है। काल ही तप है, काल ज्येष्ठ है, काल में ही ब्रह्म प्रतिष्ठित है। काल सभी का ईश्वर, पिता और प्रजापति है। काल ने पहले प्रजापति को उत्पन्न किया, फिर प्रजाओं की रचना की। काल स्वयंभू है तथा काल से ही कश्यप, अंगिरा, अथर्वा आदि महर्षि उत्पन्न हुए।" काल से भूत, भविष्य, पुत्र, पुर, ऋचा और यजुर्वेदी उत्पन्न हुए हैं। काल ने ही यज्ञ को देवताओं के भाग के रूप में प्रकट किया। काल से ही गन्धर्व और अप्सराएँ हुई और ये सभी लोक काल के ही आश्रित है।६।। अथर्ववेद में ऋषियों की इस विचारधारा कि 'काल ने जगत् की सृष्टि की' का प्रभाव बड़ा दूरगामी सिद्ध हुआ। कालान्तर में विकसित होने वाले विविध साहित्य तथा दार्शनिक-चिन्तन की सम्प्रदायगत धाराओं पर इस विचार का पूर्ण प्रभाव पड़ा। उपनिषद् में कालवाद कालवाद की प्राचीनता उपनिषदों से भी प्रमाणित होती है। अक्ष्युपनिषद् में काल को समस्त पदार्थों का निरन्तर निर्माता प्रतिपादित करते हुए कहा गया है"कालश्च कलनोद्युक्तः सर्वभावनानारतम्' नारायण उपनिषद् में काल को संभवत: किसी अपेक्षा से नारायण कहा है-"कालश्च नारायणः। सीतोपनिषद् में काल के कला, निमेष, घटिका, याम, दिवस, रात्रि, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर आदि का उल्लेख करते हुए निमेष से लेकर परार्ध पर्यन्त कालचक्र का संकेत किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy