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७४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण काल अमूर्त होते हुए भी वैज्ञानिकों के लिए भी अध्ययन का विषय बना हुआ है तथा वे भी इसकी कारणता पर विचार कर रहे हैं।
भारतीय दर्शनों में भी काल की कारणता पर विचार हुआ है एवं भारतीय दार्शनिक 'काल' को कार्य की उत्पत्ति में साधारण कारण मानते हैं। प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति में काल की उपस्थिति साधारण कारण होती है, किन्तु वे काल को क्षिप्र, चिर, ज्येष्ठ, कनिष्ठ आदि के व्यवहार में असाधारण कारण मानते हैं।
प्रश्न यह है कि क्या एकमात्र 'काल' ही समस्त कार्यों का जनक हो सकता है तो उत्तर में कहना होगा कि कालवाद सिद्धान्त ने एकमात्र काल को ही समस्त कार्यों का कारण स्वीकार किया है।
कालवाद के अनुसार 'काल' का कितना व्यापक स्वरूप मान्य रहा होगा, इसका अनुमान अथर्ववेद, महाभारत आदि ग्रन्थों से यत्किंचित हो सकता है, किन्तु 'कालवाद' के संबंध में कोई स्वतंत्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। 'कालवाद' को लेकर किसी ग्रन्थ की रचना की गई, ऐसा भी उल्लेख नहीं मिलता और न ही इस सिद्धान्त के प्रवर्तक का नोमोल्लेख मिलता है। कालवाद किसी एक व्यक्ति की मान्यता न होकर सामूहिक मान्यता बन गई थी, ऐसा प्रतीत होता है।
कालवाद के स्वतंत्र ग्रन्थ होते तो उनके आधार पर यहाँ काल का विवेचन किया जा सकता था, किन्तु सम्प्रति समुपलब्ध विभिन्न स्रोतों से काल एवं कालवाद की चर्चा करने का प्रयास इस अध्याय में किया गया है।
अथर्ववेद, उपनिषद्-साहित्य, पुराण-वाङ्मय, भगवद्गीता, महाभारत आदि के साथ जैनागम एवं विभिन्न दार्शनिक ग्रन्थों के आधार पर 'कालवाद' के स्वरूप को प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। जैनागम सूत्रकृतांग सूत्र में क्रियावादीअक्रियावादी के भेदों के अन्तर्गत 'कालवाद' की मान्यता दृष्टिगोचर होती है। जैनागम टीकाकार शीलांक और मलयगिरि ने कालवाद पर विस्तार से विवेचन किया है। सिद्धसेनकृत सन्मतितर्क प्रकरण एंव उस पर अभयदेवसूरि विरचित टीका, हरिभद्रसूरिकृत शास्त्रवार्तासमुच्चय आदि में कालवाद का पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थापन कर काल को एकान्त कारण मानने का खण्डन किया गया है।
इस अध्याय में कालवाद के साथ विभिन्न दर्शनों में मान्य 'काल' के स्वरूप की भी चर्चा की गई है। वैशेषिक दर्शन में काल को एक द्रव्य स्वीकार किया गया है जो ज्येष्ठ, कनिष्ठ, युगपद्, चिर, क्षिप्र आदि से अनुमित होता है। व्याकरण दर्शन में इसे अमूर्त क्रिया के परिच्छेद के हेतु रूप में मान्य किया गया है। न्याय दर्शन में काल
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