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उत्थापनिका
कारण के बिना कार्य की निष्पत्ति नहीं होती, प्रायः यह सर्वमान्य सिद्धान्त है । प्राचीनकाल से ही कारण कार्य के संबंध में भारतीय मनीषी चिन्तन कर विभिन्न सिद्धान्तों या मन्तव्यों का प्रतिपादन करते रहे हैं। उन विभिन्न सिद्धान्तों में से एक मान्यता 'कालवाद' के नाम से जानी जाती है। कालवाद की मान्यता है कि समस्त जगत् कालकृत है, काल ही समस्त कार्यों का कारण है। कालवाद की मान्यता के संबंध में निम्नांकित श्लोक महाभारत, अभयदेव की सन्मति - तर्क टीका, सूत्रकृतांग पर शीलांकाचार्य की टीका, हरिभद्रसूरि विरचित शास्त्रवार्ता समुच्चय आदि में सम्प्राप्त होता है
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द्वितीय अध्याय
कालवाद
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अर्थात् काल ही पृथ्वी आदि भूतों का परिणमन करता है, काल ही प्रजा (जीवों) को पूर्व पर्याय से प्रच्यवित कर अन्य पर्याय में स्थापित करता है, काल ही लोगों के सो जाने पर जागता है इसलिए काल की कारणता का अपाकरण संभव नहीं है।
कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः ।
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कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः ।।
काल को परमतत्त्व परमात्मा के रूप में भी स्वीकार किया गया है। अथर्ववेद, नारायणोपनिषद्, शिवपुराण, भगवद्गीता आदि ग्रन्थ इसके साक्षी हैं। अथर्ववेद में यथा
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कालःप्रजा असृजत, कालो अग्रे प्रजापतिम् । स्वयंभूः कश्यपः कालात्, तपः कालादजायत ।। कालादाण समभवन् कालाद् ब्रह्म तपो दिश। कालेनोदेति सूर्यः काले निविशते पुनः ।।
२
काल ने प्रजा (जगत् एवं जीवों) को उत्पन्न किया, काल ने प्रजापति को उत्पन्न किया, स्वयंभू कश्यप काल से उत्पन्न हुए हैं तथा तप भी काल से
उत्पन्न हुआ।
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