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जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय ६१ यदृच्छावाद- जगत की किसी भी घटना का कोई भी नियत हेतु नहीं है, उसका घटित होना मात्र एक संयोग है। इस प्रकार यह संयोग पर बल देता है तथा अहेतुवादी धारणा का प्रतिपादन करता है। निष्कर्ष
भारतीय दर्शन में कारण-कार्य सिद्धान्त की चर्चा में जैन दर्शन का भी अप्रतिम स्थान है। जैन दार्शनिक सांख्य के सत्कार्यवाद, वेदान्त के सत्कारणवाद, न्यायदर्शन के असतकार्यवाद और शून्यवादी बौद्ध दर्शन के असत्कारणवाद का निरसन करते हुए सदसत्कारणवाद तथा सदसत्कार्यवाद की स्थापना करते हैं। इसके अनुसार कारण सत् भी है और असत् भी। कार्य की उत्पत्ति होने से पूर्व कारण सत् होता है तथा कार्य उत्पन्न हो जाने पर उपादान कारण का मूल स्वरूप न रहने से वह असत् ही होता है। वृक्ष की उत्पत्ति के पूर्व बीज सत् होता है तथा वृक्ष की उत्पत्ति के पश्चात् वह असत् हो जाता है। इस दृष्टि से जैन दर्शन में कारण सदसत् है। कारण की भाँति जैन दर्शन में कार्य को भी सदसत् माना गया है। उदाहरणार्थ वृक्ष रूपी कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व असत् होता है तथा उत्पत्ति के पश्चात् सत्। इस प्रकार जैन दर्शन का कारण-कार्य सिद्धान्त सदसत्कार्यवाद के नाम से प्रसिद्ध है। जैन दार्शनिक यह भी मानते हैं कि कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व कथंचित् सत् और कथंचित् असत् होता है। एकान्त सत् अथवा एकान्त असत् पदार्थ न तो स्वयं उत्पन्न होते हैं और न किसी को उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं। जैन दार्शनिकों के अनुसार नित्यानित्यात्मक सामान्यविशेषात्मक या द्रव्यपर्यायात्मक पदार्थों में ही कारण-कार्य भाव घटित होता है। जिसे सदसत्कार्यवाद कहा गया है।
जैन दार्शनिक कारण-कार्य को अन्य दार्शनिकों की भाँति स्वीकार करते हैं कि कारण पहले होता है तथा कार्य बाद में। वे कारण-कार्य को क्रमभावी भी कहते हैं। वे कारण-कार्य को सर्वथा भिन्न न मानकर भिन्नाभिन्न स्वीकार करते हैं। अभयदेव सूरि कहते हैं- 'कारणात् कार्य अन्यत् कथंचित् अनन्यत् अतएव तदतदूपतया सच्च असच्च इति। 4 कारण से कार्य कथंचित् भिन्न है और कथंचित् अभिन्न। यदि कार्य कारण से सर्वथा भिन्न हो तो यह इस कारण का कार्य है- ऐसा नहीं जाना जा सकता तथा सर्वथा अभिन्न हो तो यह कारण है और यह कार्य ऐसा भेद नहीं हो सकता इसलिए जैन दर्शनानुसार कार्य-कारण में भेदाभेदता ही ग्राह्य है। वादिदेवसूरि कहते हैं कि तन्तु आदि कारणों और पटादि कार्यों में संज्ञा, संख्या, स्वलक्षण आदि भेद की स्पष्ट प्रतीति होती है। मल्लधारी हेमचन्द्राचार्य ने संख्या, संज्ञा, लक्षण आदि के भेद से कारण-कार्य में भिन्नता का प्रतिपादन किया है। साथ ही
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