________________
62 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
जइधम्मम्मि वि कुसलो, धीमं आणारुई सुसीलो अ । विन्नायतस्सरूवो, अहिगारी देसविरईए ।। 121 ।। यति धर्मेऽपि कुशलः धीमान् आज्ञारूचिः सुशीलश्च । विज्ञाततत्स्वरूपः अधिकारी देशविरति (प्रतिपत्तौ ) ।। 121 ।। जिसका मन मोक्ष की अभिलाषा से भावित हो, जो सम्यक्त्व में निश्चल हो, प्रतिज्ञा में स्थिर हो, इन्द्रियों का विजेता हो, अमायावी हो और कृपालु (दयालु) हो, यति धर्म में कुशल हो, निपुण बुद्धि हो, आज्ञारूचि (आज्ञाकारी) हो, उत्तम स्वभाव वाला हो, चारित्र के स्वरूप का ज्ञाता हो, इतने गुणों का धारक देशविरति का अधिकारी है ।
पाएण होंति जोग्गा, पवज्जाए वि तोच्चिय मणुस्सा |
देसकुलजाइसुद्धा, बहुखीणप्पायकम्मंसा ।। 122 ।। प्रायेण भवन्ति योग्या, प्रव्रज्यायाः अपि ते एव मनुष्याः । देश - कुल - जानति शुद्दा, बहुक्षीणप्रायकर्माशाः ।। 122 ।। देश, कुल जाति शुद्ध संस्कारी हो, जिसका कर्म समूह प्रायः क्षीण हो गया हो, ऐसे मनुष्य प्रव्रज्या के अधिकारी होते हैं ।
अट्ठारस पुरिसेसुं, वीसं इत्थीसु दस नपुंसेसुं । जिणपडिकुट्ठत्ति तओ, पव्वावेउं न कप्पंति ।। 123 ।। अष्टादश पुरुषेषु, विंशतिः स्त्रीषु दश नपुंसकेषु । जिन प्रतिकुष्टाः तथा, प्रव्राजयितुं न कल्पन्ते ।। 123 ।। पुरुषों में अठारह, स्त्रियों में बीस, नपुंसक में दस प्रकार के व्यक्ति दीक्षा के अयोग्य होते हैं । अतः जिनेश्वर परमात्मा ने इनको प्रव्रज्या देने का निषेध किया है।
बाले बुड्ढे नपुंसे य, कोबे जड्डे य वाहिए । तेणे रायावगारी य, उम्मत्ते अ अदंसणे ।। 124 ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org