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उपदेश पुष्पमाला/61
मूलुत्तरगुणभेएण, सव्वचरणं पि वणियं दुविहं। मूले पंच महव्वय-राईभोअणविरमरणं च।। 117 ।। मूलोत्तरगुणभेदेन, सर्वचरणमपि वर्णितं द्विविधम् ।
मूले पंच महाव्रतानि रात्रिभोजनविरमणं च।। 117 || वीतराग-प्रणीत सर्व चारित्र भी मूल गुण और उत्तर गुण भेद से दो प्रकार का है। मूल गुण पांच महाव्रत और रात्रि भोजन त्याग है।
पिंडविसेही समिई, भावण पडिमा य इंदियनिरोहो।
पडिलेहणगुत्तीओ, अभिग्गहा उत्तरगुणेसु ।। 118।। पिण्ड विशुद्दि समिति भावना प्रतिमा च इन्द्रियनिरोधः ।
प्रतिलेखन गुप्तयः अभिग्रहाः उत्तरगुणेषु ।। 11811 पिंड-विशुद्धि, समिति-पालन, भावना, प्रतिमा-वहन, इन्द्रिय-निग्रह, प्रतिलेखन, त्रिगुप्ति और अभिग्रह ये उत्तर गुण के सत्तर भेद हैं।
___ इय एवमाइभेयं, चरणं सुरमणुअसिद्धिसुहकरणं। जो अरिहइ इय घेत्तं, जे तमहं वोच्छं समासेणं ।। 119।। __ इति एव-मादिभेदं, चरणं सुरमनुजसिद्दिसुखकरणं। यः अर्हति इति ग्रहीतुं, ये तम् अहं वक्ष्ये समासेन।। 119 ।। सामायिक आदि चारित्र, देवलोक और मनुष्य लोक के सुखों के और परम आनन्द रूप मोक्ष के कारण है। अरिहंत परमात्मा ने जिस चारित्र को ग्रहण करने का कहा है उसे मैं संक्षेप में कहता हूँ। ___ संवेगभाविअमणो, सम्मत्ते निच्चलो थिरपइन्नो। विजिइंदिओ अमाई, पन्नवणिज्जो किवालू अ।। 120 ||
संवेगभावितमनाः, सम्यक्त्वे निश्चलः स्थिरप्रतिज्ञः । विजितेन्द्रियः अमायः प्रज्ञापनीयः कृपालुश्च ।। 120 ।।
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