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उपदेश पुष्पमाला/ 49
तपः शोषित-मांसरूधिरः, अन्त विस्फुरितगरूकमाहात्म्याः।
श्लाध्यन्ते सुरैः अपि, ये मुनयः तेभ्यः प्रणतोऽहं ।। 77 || जिसने तप के द्वारा शरीर को कृश कर लिया है और अपने आंतरिक माहात्म्य को प्रकट कर लिया है तथा जो देवताओं के द्वारा प्रशंसनीय है, ऐसे मुनि को मैं प्रणाम करता हूँ।
(3) तपोऽधिकार :
जं नंदीसेणमुणिणो, भवंतरे अमरसुंदरीणं पि। अइलोभणिज्जरूवं, संपत्तं तं तवस्स फलं ।। 78 ।। यत् नन्दिषेणमुनेः भवान्तरे अमरसुन्दरीणां अपि।
अतिलोभनीयरूपं, सम्प्राप्तं तत् तपसः फलं ।। 78 ।। नंदीसेन मुनि को अग्रिम वासुदेव के भव में अप्सराओं को भी लुभानेवाला ऐसा परम सौन्दर्य प्राप्त हुआ, उसे तप का ही प्रभाव (फल) समझना चाहिए।
सुरअसुरदेवदाणव-नरिंदवरचक्कवट्ठिपमुहेहिं। भत्तीए संभमेण य, तवस्सिणो चेव थुब्बति।। 79 ।।
सुरअसुर देवदानवनरेन्द्रवरचक्रवर्तिप्रमुखैः। भक्त्या संभ्रमेण वा (च) तपस्विनः एव स्तूयन्ते।। 79।। सम्यग्दर्शन से युक्त (दानव) वैमानिक देव (सुर) भवनपति, देव (असुर) ज्योतिष्क देव, (देव) तथा व्यन्तर देव (दानव) तथा सामान्य राजा, चक्रवर्ती सेनापति, श्रेष्ठि-गण आदि प्रमुख पुरुष भक्ति-भावपूर्वक तथा मिथ्यादृष्टि देव, मनुष्य आदि के भय से तपस्वी की स्तुति करते हैं। पत्थइ सुहाई जीवो, रसगिद्धो नेय कुणइ विउलतवं । तंतूहिं विणा पडयं, मग्गइ अहिलासमित्तेण।। 8011
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