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48 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
उपभोग किया, किन्तु यह सुख तो तप रुपी वृक्ष का मात्र पुष्प है, तप रुपी वृक्ष का फल तो मोक्ष है। अतः तप अवश्य करना ही चाहिये।
जं भरहमाइणो च-क्किणो वि विप्फुरिनिम्मलपयावा।
भुंजंति भरहवासं, तं जाण तवप्पभावेणं।। 74|| यद् भरतादयः चक्रिणोऽपि विस्फुरितनिर्मलप्रतापाः। भुंजन्ति भरतवासं, तद् जानीहि तपः प्रभावेन।। 74|| भरत चक्रवर्ती आदि राजाओं ने अपने निर्मल प्रताप को फैलाते हुये भरत क्षेत्र में जिस सुख-सम्पदा को प्राप्त किया, उसे उनके पूर्व भव में किये गये तप का ही प्रभाव समझना चाहिये।
पायाले सुरलोए, नरलोए वा नत्थि तं कज्जं । जीवाण जं न सिज्झइ, तवेण विहिणाऽणुचिण्णेणं ।। 7511
पाताले सुरलोके नरलोके वापि नास्ति तद् कार्यम्। जीवानां यत् न सिध्यति, तपसा विधिनाऽनुचीर्णेन।। 75 || पाताल में, देवलोक में, मनुष्य लोक में ऐसा एक भी प्राणी नहीं है जिसका विधि पूर्वक किये गये तप से कोई कार्य सिद्ध न हुआ हो। विसमं पि समं सभयं, पि निमयं दुज्जणो वि सुयणोव्व। सुचरियतवस्स मुणिणो, जायइ जलणो जलणो वि जलनिवहो।। 76 || विषमं अपि समं सभयं अपि निर्भयं दुर्जनोऽपि सुजन इव। सुचरिततपसः मुनेः जायते ज्वलनः अपि जलनिवहः ।। 76 || मुनियों द्वारा पालन किये गये चारित्र एवं तप के प्रभाव से विरोधी भी मित्र बन जाते हैं, भयभीत भी निर्भय हो जाते हैं, दुर्जन भी सज्जन हो जाते हैं तथा अग्नि भी शीतल बन जाती है।
तवसुसियमंसरुहिरा, अंतोविप्फुरियगरुयमाहप्पा। सलहिज्जति सुरेहि वि, जे मुणिणो ताण पणओहं।। 77 ।।
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