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16 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
पालकमुनि का कथानक तथा गुरूकुलवास के त्याग के सम्बन्ध में कूलबालक साधु का कथानक दिया गया है।
इसके पश्चात् छट्टा द्वार आलोचनाद्वार है। इसमें आलोचना करने वाले एवं कराने वाले के गुणों को स्पष्ट किया गया है। फिर आलोचना के सन्दर्भ में निम्न पांच प्रकार के व्यवहारों की चर्चा की गयी है- 1. आगम 2. श्रुत 3. आज्ञा 4. धारणा और 5 जीत। इसी प्रसंग में आलोचना करने के सन्दर्भ में आर्द्रकुमार तथा इलाकुमार की कथा वर्णित
है ।
प्रस्तुत कृति का सातवां द्वार भवविरागद्वार है, जिसमें चतुर्गति के दुःखों का विवेचन करने के साथ-साथ चुलनी, कनक-रथ राजा, भरत, सूर्यकान्ता रानी और कुणिक नृप के आख्यान दिये गये हैं पुनः विषयासक्ति के परिहार के सन्दर्भ में जिनपालित और जिनरक्षित के कथानक उल्लिखित है ।
प्रस्तुत कृत्तिका आठवां द्वार विनय द्वार है । इस द्वार के अन्तर्गत पांचों प्रकार के विनयों का स्वरूप स्पष्ट किया गया है और विनय के फल के रूप में मणिरथ राजा का कथानक है।
नवें द्वार वैय्या - वृत्य द्वार में 10 प्रकार की वैयावृत्य की चर्चा के साथ-साथ वैयावृत्य के फल के रूप में राजपुत्र भरत का कथानक दिया गया है। दूसरी ओर साधु के द्वारा गृहस्थ की वैयावृत्य के दोष दिखाते हुये सुभद्रा साध्वी का कथानक वर्णित है । दशवें स्वाध्याय द्वार में उत्कृष्ट और जघन्य स्वाध्याय के परिणामों की चर्चा करते हुये अन्त समय में नमस्कार महामन्त्र के स्मरण का निर्देश दिया गया है। फिर इस सन्दर्भ में शिवकुमार, श्रीमती श्राविका, चन्द्रपिंगल, हुण्डक यक्ष और चोर के दृष्टान्त वर्णित है ।
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