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________________ उपदेश पुष्पमाला/ 177 उससे भक्त प्रत्याख्यान आदि करें। इस हेतु संविग्न या गीतार्थ निर्यापक को ही स्वीकार करना चाहिये। निर्यापकों की संख्या एक से अधिक होनी चाहिये, क्योंकि एक निर्यापक को स्वीकार करने पर यदि वह अपने आहार-पानी के लिये चला जायेगा तो आर्तध्यान आदि की संभावना हो सकती है। निर्यापक को साधक की शारीरिक स्थिति देखकर ही समाधि मरण सम्बन्धि प्रत्याख्यान कराना चाहिये। यदि समाधि मरण हेतु एक से अधिक साधक उपस्थित हो तो ऐसी स्थिति में उस गण के आचार्य को स्वगण के मुनिवरों से विचार-विमर्श किये बिना सहसा ही दूसरे व्यक्ति को समाधिमरणकी स्वीकृति नहीं देनी चाहिये। समाधि मरण के उद्देश्य से दूसरे गण का साधु या आचार्य उपस्थित हो तो सर्वप्रथम उसकी परीक्षा ले लेनी चाहिये कि वह जीतेन्द्रिय आदि गुणों से युक्त है या नहीं। उसके पश्चात् समाधि मरण के साधक को सर्व प्रथम आलोचना करनी चाहिये। आलोचना ग्रहण करने के पश्चात् समाधि मरण हेतु प्रशस्त स्थान और वसति का चयन करना चाहिये। निर्यापक को ऐसा होना चाहिये, जो स्वयं त्यागी ओर तपस्वी हो। अन्तिम समय में आहारेच्छा होने पर तपस्वी दिखाकर भी उसके प्रति उसके मन में वैराग्य भाव उत्पन्न कराना चाहिये। यदि समाधिमरण के साधक में हीयमान भाव उत्पन्न हो तो निर्यापक को उसे दूर करना चाहिये और परिषहों और उपसर्गों को जीतने की प्रेरणा देनी चाहिये। तथा साधक को क्रमशः आहारादि की मात्रा कम करते जाना चाहिये। साथ ही उसके संस्तारक की प्रतिलेखना करते हुये उसे करवट आदि दिलाना चाहिये। देवाधिष्ठित उपसर्ग आदि उत्पन्न हो तो कवच आदि प्रदान करना चाहिये। इस प्रकार से निर्व्याघात रूप से समाधि मरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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