SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 176 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री सपराक्रमं तु तथैव, निर्व्याघातं तथैव व्याघातं । जीतकल्पे भणितं एतैः द्वारैः ज्ञातव्यं ।। 479 ।। स्वगण- निस्सरणापरगणे, श्रिति संलेखे अगीतसंविग्ने । एकोऽभोगनमन्ये, अनपृष्टे परीक्षया आलोके ।। 480 ।। संस्थानवसति प्रशस्ते, निर्यापकाः द्रव्यदापणे चरिमे । हानिपरितांते निर्जरसंस्थोद्वर्तनादीनि ।। 481 ।। सारयित्वा च कवचं निर्व्याघातेन चिन्हकरणं च । व्याधातेन ज्ञातेन, भक्त परिज्ञानेन कर्त्तव्या ।। 482 ।। इन दोनों प्रकार की अर्थात् सपराक्रम और अपराक्रम समाधि मरणों में से संपराक्रम समाधि मरण के निर्व्याघात और सव्याघात ऐसे दो प्रकार जीतकल्प भाष्य में कहे गये हैं, जिनका विस्तृत वर्णन उस ग्रन्थ से जान लेना चाहिये । 1 समाधिमरण का साधक सर्वप्रथम स्वगण का परित्याग कर और विधिपूर्वक परगण में प्रवेश की अनुज्ञा प्राप्त करता है। परगण में प्रवेश के समय परगण के आचार्य को अपने गण के शिष्यों से पूछकर ही प्रवेश देना चाहिये । तत्पश्चात् समाधिमरण का साधक प्रशस्त अध्यवसाय से युक्त होकर कषाय और शरीर को कृश करने हेतु तप करे । समाधि मरण सम्बन्धित तप विधि तीन प्रकार की बतायी गयी है । जघन्य - मध्यम और उत्कृष्ट। जघन्य छः मास, मध्यम बारह मास और उत्कृष्ट बारह वर्ष बतायी गयी है। इस सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक जानने के लिये उत्तराध्ययनसूत्र के 36 वें अध्ययन की गाथा में द्रष्टव्य है । समाधिमरण का साधक अगीतार्थ के समीप समाधिमरण स्वीकार न करें, न Jain Education International . · For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy