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118 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
को लोभेण न निहओ ? कस्स न रमणीहिं भोलियं ? हिययं । को मच्चुणा न गासिओ ? को गिद्धो नेय विसएसु ?|| 302 || को लोभेन न निहतः? कस्य न रमणीभिः व्यामोहितं? हृदयं । को मृत्युना न ग्रस्तः ? विषयेषु को न गृद्धः ? || 302 || लोभ के द्वारा किसका विनाश नहीं हुआ ? सुन्दर रमणियों के द्वारा कौन व्यामोहित नहीं हुआ ? मृत्यु के द्वारा कौन ग्रसित न हुआ ? विषयों में कौन आसक्त न हुआ हो ? अर्थात् लोभ, मोह, काम, सुख, ऐन्द्रिक विषयों से निर्लिप्त रहना और मृत्यु के मुख से बच पाना अति कठिन है।
_ पियविरहाउ न दुसहं, दारिदाओ परं दुहं नत्थि। लोभसमो न कसाओ, मरणसमा आवइ नत्थि।। 303 ।। प्रियविरहात् न दुःसहं, दारिद्रयात् परं दुःखं नास्ति।
लोभसमः न कषायः, मरणसमा आपत् नास्ति।। 303 ।। प्रियजनों के विरह (वियोग) के अतिरिक्त कोई अन्य दुसह्य नहीं है।
दारिद्र्य के समान कोई विपत्ति नहीं है। लोभ के समान कोई कषाय नहीं है। मरण के समान कोई आपत्ति नहीं है। थोवा माणकसाई, कोहकसाई तओ विसेसऽहिया। मायाए विसेसऽहिया, लोहोतओ विसेसऽहिया।। 304 || स्तोकाः मानकषायाः, क्रोध कषाया ततः विशेषाधिकाः। मायायाः विशेषाधिकाः, लोभंततो विशेषाधिकाः ।। 304।। चारों गतियों में विद्यमान जीवों में सबसे कम मान कषाय वाले जीव होते हैं, उनसे कुछ अधिक क्रोध कषाय वाले जीव होते हैं, उनसे भी अधिक संख्या में माया कषाय वाले जीव होते हैं। और उनसे भी विशेष अधिक लोभ कषाय वाले जीव होते हैं।
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