SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेश पुष्पमाला/ 117 जाइमएणिक्केण वि, पत्तो डुबत्तणं दियवरो वि। सव्वभएहिं कहं पुण, होहिंति ? न सव्वगुणहीणा।। 299 ।। जातिमदेकेन अपि प्राप्तः डुम्बत्वं द्विजवरः अपि। सर्वमदैः कथं पुनः भविष्यन्ति ? न सर्वगुणहीना।। 299 ।। एक मात्र जाति के अहंकार के फल स्वरूप पुरोहित पुत्र भी अन्य भव में डोम जाति में उत्पन्न हुआ तो जो व्यक्ति इन सभी मदों से ग्रसित है, वह क्यों नहीं भविष्य में भद्र कुलोत्पत्ति आदि गुणों से हीन होगा ? अर्थात् वह अवश्य ही अधोगति को प्राप्त करेगा। जे मुद्धजणं परिवं-चयंति बहुअलियकूडकवडेहिं। अमरनरसिवसुहाण, अप्पा वि हु वंचिओ तेहिं।। 300 ।। ये मुग्धजनं परिवंचयन्ति बहुअलीककूटकपटैः। अमरनरशिव-सुखानां, आत्मापि खलु वंचितः तैः।। 300।। जो व्यक्ति अनेक असत्य वचन, कूटनीति तथा कपटवृत्ति से भद्रजनों को ठगते रहते हैं वे व्यक्ति शिव-सुख अर्थात् मोक्ष से स्वतः ही वंचित हो जाते ___ जइ वणिसुयाइ दुक्खं, लद्धं एक्कसि कयाइ मायाए। तो ताण को विवागं, जाणइ ? जे माइणो निच्वं ।। 3011। यदि वणिक-सुतया दुःखं लब्धं एकशः कृतया मायया। ततः तेषां कः विपाकः, जानाति ? ये मायिनः नित्यं ।। 301 ।। यदि एक बार के ही मायाचार के कारण वणिक पुत्री वसुमती अनेक दुःखों को प्राप्त हुयी, तो फिर जो नित्य ही मायाचार से युक्त व्यवहार करते हैं उनको क्या परिणाम भोगने होंगे ? इसे कौन बता सकता है ? अर्थात् उन्हें अनन्त दुःखों को भोगना ही पड़ता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy