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________________ ६३ शिकार नहीं खेलना, मद्य और माँस का सेवन नहीं करना, प्रतिदिन जिन प्रतिमा की पूजाअर्चना करना और हेमचन्द्राचार्य का पदवन्दन करना, अष्टमी और चतुर्दशी के दिन सामायिक और पौषध आदि विशेष व्रतों का पालन करना, रात्रि को भोजन न करना, इत्यादि इत्यादि । अमारी घोषणा ऐसी प्रतिज्ञाएँ लेने के पश्चात् उसने अपने राज्य में, दूसरे लोगों को भी धर्म के मोटे नियमों का पालन करवाने के लिए घोषणा करवाई थी । उसमें सबसे मुख्य आज्ञा थी जीवहिंसा के प्रतिबन्ध की । हमारे देश में बहुत प्राचीन काल से दो कारणों से हिंसा होती आ रही है-एक है धर्म के निमित्त अर्थात् यज्ञयागादि धार्मिक कर्मकाण्ड और देवी देवताओं की बली के निमित्त, और दूसरी भोजन के निमित्त । कुमारपाल ने इन दोनों प्रकार की जीवहिंसा का निषेध करने के लिए राजाज्ञाएँ जाहिर की । हेमचन्द्राचार्य के व्याश्रय काव्य में आए हुए वर्णन से प्रतीत होता है कि माँसाहार के निमित्त होने वाली जीवहिंसा का निषेध तो कुमारपाल ने कदाचित् श्रावक धर्म के व्रतों का अंगीकार करने के पहले ही कर दिया था । शाकम्भरी के चाहमान राजा अर्णोराज और मालवा के परमार राजा बल्लालदेव को पराजित करने के पश्चात् एक दिन कुमारपाल ने रास्ते में किसी दीन-दरिद्र ग्रामीण मनुष्य को कसाई खाने की ओर कुछ बकरे ले जाते देखा । उससे पूछताछ की और वस्तुस्थिति का ज्ञान होने पर, उस पामर मनुष्य और उन पशुओं की ऐसी दशा देखकर राजा के मनमें बोधिसत्त्व के समान करुणाभाव उत्पन्न हुआ । उसके मनमें यह विचार आया कि ये लोग दुष्ट जातिवाले और कुत्तों के समान धर्मविमुख है। ये अपने इस पापी पेटके लिए प्राणियों का हनन करते हैं । वास्तव में इसमें शासन करने वाले का ही दोष है। चंकि यथा राजा तथा प्रजा । मुझे धिक्कार है कि मैं सिर्फ अपने सुख के लिए प्रजा से कर लेता हूँ लेकिन प्रजा की रक्षा के लिए नहीं । इत्यादि विचार कर उसने अपने अधिकारियों को आज्ञा दी कि मेरे राज्य में जो कोई भी जीवहिंसा करे उसको चोर और व्यभिचारी से भी अधिक कठोर दण्ड दिया जाय । आर्य प्रजा में जो लोग माँसाहारी हैं वे भी जीवहिंसा को घृणास्पद तो मानते ही हैं, क्योंकि दयामूलक धर्म की भावना हमारी प्रजा में कई सदियों से रूढ़ हो गई है । 'अहिंसा परमो धर्मः' का सिद्धान्त भारत के सभी धर्म थोड़े बहुत अंश में स्वीकार करते हैं । इससे माँसाहारी मनष्य जिह्वा इन्द्रिय की लोलुपता के कारण राजाज्ञा को मनसे भले ही अप्रिय समझते हों, तो भी प्रकट रूप से उसका विरोध करने की नैतिक हिम्मत नहीं कर सकते । इसलिए वे बोल नहीं सकते । लेकिन धर्म के बहाने जीवहिंसा करने वालों की स्थिति अलग ही होती है। उनकी हिंसा को धर्मशास्त्रों का, सनातन परम्परा का, रूढियों का और जनता में व्याप्त अन्धश्रद्धा का यथेष्ट समर्थन प्राप्त होता है । इससे राजाज्ञा के विरुद्ध वे कुछ विरोध प्रकट करें तो सर्वथा अपेक्षित ही है। परन्तु गुजरात की कुछ सामाजिक विशेषताओं के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002501
Book TitleKumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year2008
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size21 MB
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