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________________ था कि, जिससे सिद्धराज का मन खुश खुश हो जाता था ।" एक समय सिद्धराज के मनमें यह शंका हुई कि 'जगत् में मनुष्य का स्थान कैसा है तथा मनुष्य का उद्देश्य क्या है और वह कैसे प्राप्त हो सकता है ?" जुदा जुदा अनेक धर्माचार्यों के पास स उसने इसका जवाब माँगा परन्तु किसी से सन्तोषकारक जवाब न दिया गया। सब ही ने उत्तर देने के समय, अपना मत श्रेष्ठ बतलाकर, अन्य धर्मों की निन्दा की । अन्त में सिद्धराज ने निराश होकर, हेमचन्द्राचार्य से इसका जवाब माँगा, तब, उसने एक बहुत अच्छा दृष्टान्त देकर सिद्धराज की शंका का निराकरण किया ।......सिद्धराज इस जवाब को सुनकर बहुत खुश हुआ ।" हेमचन्द्राचार्य के इस निष्पक्षपातपन पर प्रो० पीटरसन स्वयं बड़ा मुग्ध हुआ था । सिद्धराज का अवसान इस प्रकार, महाविद्वान् श्रीहेमचन्द्राचार्य के सहवास से, सिद्धराज के मनमें, जैनधर्म के विषय में, बहुत कुछ आदर उत्पन्न हो गया था । यद्यपि, स्पष्ट रूप से उसने अपने कुलधर्म का त्याग नहीं किया था, तथापि, जैनधर्म की तरफ उसका भक्तिभाव विशेष हो गया था । वह हेमचन्द्राचार्य को बड़ी आदर की दृष्टि से देखता था । 'सिद्ध-हैमशब्दानुशासन' नामक महान् व्याकरण ग्रन्थ आपने इसी के कथन से बनाया था । यह राजा बड़ा न्यायी और विद्याविलासी था । ४९ वर्ष तक राज्यभार वहन कर संवत् ११९९ में, इसने देह छोड़ दिया । हेमचन्द्राचार्य का विहार __ जब तक, सिद्धराज जीवित था तब तक, बहुत करके आपका निवास, पाटन ही में रहता था । यद्यपि शास्त्रों में, मुनिजनों को चिरकाल पर्यन्त, एक स्थान में रहने का निषेध किया है, परन्तु आप उत्सर्ग-अपवाद और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के पूर्ण ज्ञाता थे । अत: आपने, अनेक प्रकार से जैनधर्म की प्रभावना होने का महान् लाभ समझकर, राजा के उपरोध से, अधिक समय तक, पाटन में ही रहना स्वीकार किया था । गुरु महाराज और जैनसंघ की भी यही इच्छा थी । जब सिद्धराज का देहपात हो गया, तब आपने थोड़े समय के लिए, पाटन छोड़ दिया और अन्य प्रदेशों में विचरण किया । इस विहारकाल में आपने जैनधर्म की बहुत प्रभावना की । हजारों मनुष्यों को जैनधर्म का स्वीकार कराया । अपने उपदेश द्वारा, प्रजाजनों को नैतिक और धार्मिक जीवन का सन्मार्ग दिखाया। अवकाश के समय में अनेक ग्रन्थों की रचना कर, जैन-साहित्य की शोभा में असाधारण अभिवृद्धि की और भारत की भावी प्रजा के ऊपर अत्यन्त उपकार किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002501
Book TitleKumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year2008
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size21 MB
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