SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९१ हंसगिरि हंस परे निर्मल करे, परिणती शुद्ध सदाय; जेह गिरि सांनिध्यथी, अनुपम गुण पमाय. ९२ विवेकगिरि विवेकगिरि आतम तणो, देह थकी जे भिन्न; ध्यान धारा मांही लहे, परम सुख अभिन्न. |९३ मुक्तिराजगिरि मुगतिना मुगट समो, शोभे से गिरिराज; मुक्तिराज अ गिरि थयो, आपे सिद्धनुं राज. ९४ मणिकांतगिरि मणिसम कान्ति जेहनी, दीपे सदा दिनरात; भविक लोकनी दृष्टिमां, दीसे ते भलीभात. ९५ महाशयगिरि महान शयने पामियो, अनंतजिन जिहां सिद्ध; तेहनी तुलनामां नहीं, अन्य कोई प्रसिद्ध. ९६ अव्याबाधगिरि त्रण लोकमां सुरनरो, गिरि आकार पूजंत; संसार बाधा छेदीने, अव्याबाध भजंत. ९७ जगतारणगिरि जगतना जीव सहु, पामी तरे संसार; अह गुण छे गिरितणो, न लहे फरी अवतार. ९८ विलासगिरि ओ गिरिनो विलास जे, प्रसरे त्रिहु जगमांय; आतम शक्ति प्रटाववा, भविजन आवे त्यांय. ९९ अगम्यगिरि अगम्य गुण छे जेहना, पार न पामे कोई; केवली अह जाणी शके, कही न शके ते जोई. १०० सुगतगिरि प्राचीन पडिमां विश्वमां, दरिसणे दुर्गति जाय; पूजो प्रणमो भावथी, सुगतिगिरिना पाय. ૩૧૪
SR No.002497
Book TitleGirnar Geetganga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirthvikas Samiti
Publication Year2016
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy