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________________ ७५ /७६ मोहभंजकगिरि मोहे पीडीत जीवडा, आवे गिरि सानिध; सम्यक्त्व पामी शिव लहे; मोहभंजक गिरि किध. परमार्थगिरि अनंत काळथी प्राणीया, सेवे स्वार्थीय भाव; गिरि चरण शरण ग्रही, प्रगटे परमार्थ भाव. शिवस्वरुपगिरि मन-वच-काया वशकरी, योगी सेवे गिरि आज; शिव स्वरुप रस लीये, बनी सदा शृंगराज. ललितगिरि गिरि हारमाळाओ महीं, मनोहर रुप लहंत; तेह गिरि निरखी भवि, ललितगिरि वदंत. . अमृतगिरि अमृतसम दरिसण लहि, पामे भव्यत्व छाप; अमृतगिरि तणी सेवा करे, तेना टळे सवि पाप. दुर्गतिवारणगिरि आ भवे परभव भावथी, रैवत भक्ति करंत; .. दुःख दरिद्र दुर्गति टळे, दुर्गतिवारण नमंत. कर्मक्षायकगिरि कर्मविडंबना जीवने, वळगी काळ अनंत; कर्मक्षायक गिरि सेवतां, आतम मुक्ति लहंत. अजेयगिरि अजेय जे सवि शत्रुन, चिंता सवि दूर जाय; रागद्वेष जीती करी, अरिहंत पदने पमाय. सत्त्वदायकगिरि रजस् तमो गुणी आवी, गिरिवर पाद चढंत; - सत्त्वदायक गिरि बळे, क्षपक श्रेणी धरंत. 3१२
SR No.002497
Book TitleGirnar Geetganga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirthvikas Samiti
Publication Year2016
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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