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________________ माकन्दवृंदवनराजिपदे निरेनो- . ऽसह्योऽप्यहो ! सकलकेवलसंपदाप्तेः; सालत्रयं भविभृतं भुवि मोहभूपो नाक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ...३५ भावार्थ हे निःपापी प्राणनाथ! आम्रवृक्षोनी वनराजी ओवा सहसावनमां संपूर्ण केवळज्ञानरुपी आत्मलक्ष्मी प्राप्त करवाने कारणे देवो द्वारा रचना करायेल अनेकविध भव्यताओथी भरपूर ओवा त्रण गढोने तथा आपना चरणयुगल रुपी पर्वतो तरफ अत्यंत पराक्रमी अवो मोहराजा पण आक्रमण करतो नथी ओ आश्चर्य ज छे! - इत्युत्सुका गतिविनिर्जितराजहंसी, 'राजीमती' दृढमतिः सुसती यतीशम्; इन्द्रेः स्तुतं ह्युपययाविति नोऽसुखाग्नि, त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम् ...३६ भावार्थ मारा स्वामी पासे मोहराजा पण मीण जेवो बनी जाय छे अम जाणीने आतुर बनेली वळी, 'हे नाथ ! तारा नामना कीर्तन रुपी जळ अमारा समस्त दुःखाग्निने नक्की शांत करे छे', ओ रीते इन्द्रो वडे स्तुति करायेला, नेमीश्वर प्रभु प्रति निश्चल प्रीतिवाळी ओवी उत्तम साध्वी राजीमती राजहंसीनी गतिनो पण पराभव करे तेवी गतिथी गमन करे छे. - १७५
SR No.002497
Book TitleGirnar Geetganga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirthvikas Samiti
Publication Year2016
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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