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मत्स्वाम्यहं च मुखनेत्रजितावमुष्या;, नीतोष्णतामिति मदेन मृगेण मन्ये; दाहाय मे प्रकृतिरीश ! विधोर्यथाऽस्ति, तादक् कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ? ...३३
भावार्थ
हे विश्व वत्सल ! मारा स्वामी तेमज हुँ (राजीमती) मारा आ नेत्र अने मुख वडे जिताया होवाथी कोपायमान थयेल चंद्र पण तेनामां रहेल हरणनी डूंटीमा रहेली कस्तूरीनी उष्णताने लीधे पोतानी शीतळ स्वभावनी प्रकृतिने बदली नाखतां ते प्रकृति मारा परिताप माटे बने छे तेवी प्रकृति प्रकाशमान अवा ग्रहोना समुदायने क्याथी होय?
अत्रैव पश्य परमां पर ! कैरविण्यां, ज्योत्स्नाप्रिये च वितनोति रति शशांकः; स्नेहान्वितः परिवृढो विमुखोऽयनं हि, दृष्टवाऽभयं भवति नोभवदाश्रितानाम् ...३४
भावार्थ हे उत्कृष्ट ! तुं जो ! चंद्र कुमुदिनी प्रत्ये तथा चकोर पक्षी प्रत्ये पोतानी उत्कृष्ट प्रीति विस्तारे छे तेमा मुख्य कारण जणाय छे के प्रीतियुक्त कुमुदिनी अने चकोर जेवा आश्रितजनोनो मार्ग निर्भय जोइने तेनाथी विमुख थया विना तेने पणं साथ आपे छे.
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