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कुटिया का द्वार खट्खटाया, अंदर से आवाज़ आई-कौन ? मैं जयमणि । नहीं, द्वार नहीं खुलेगा। अरे मैं स्वयं इस कुटिया का मालिक हूँ जयमणि, द्वार खोलो ! चाहे कोई हो, द्वार नहीं खुलेगा। अच्छा! कोई बात नहीं। ये झोपड़ी तो मेरी ही बनाई हुई है ना! चढ़े छत पर, घास-फूस हटाया और अंदर मारी छलांग तो देखते क्या है-एक चौंकी पर स्वयं महर्षि वेद व्यास बैठे अपनी सफेद दाढ़ी को सहला रहे हैं। मुस्कुरा कर कहने लगे-आ गया बच्चा ? गुरू जी ! ये क्या ? बेटा समझ गया ? हाँ गुरु जी ! समझ गया, ये मन बड़ा चंचल है।
तो प्यारी आत्माओं ! इसलिए कहा है-'मन के. मते न चालिए, मन के मते अनेक' पर घबराने की जरूरत नहीं । अभ्यास और वैराग्य पूर्वक साधना में लगे रहो, एक दिन सिद्धि जरूर मिलेगी ।
'धीरे-धीरे मोड़ तूं, इस मन को, इस मन को तूं, इस मन को ।
मन मोड़ा फिर डर नहीं, कोई दूर प्रभु का घर नहीं ।। धीरे-धीरे मोड़ तूं, इस मन को, इस मन को तूं, इस मन को ।'
बस आज इतना ही..
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