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[43] चतुर्थ अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इममि लोए अदुवा परत्था।
दीव-प्पणढे व अणन्त-मोहे, नेयाउयं दद्रुमदठुमेव॥५॥ प्रमादी पुरुष के लिये धन, इस लोक अथवा परलोक में त्राण (शरण) दाता, रक्षक नहीं होता। अंधेरी गुफा में जिसका दीपक बुझ गया हो, ऐसा अनन्त मोही जीव सुपथ मोक्षमार्ग को देखकर भी नहीं देख पाता॥ ५॥
Wealth cannot protect a careless man in this world and the next. A person deluded by endless attachments fails to recognize the right path of liberation exactly like one in a dense cave having his lamp extinguished. (5)
सुत्तेसु यावी पडिबुद्ध-जीवी, न वीससे पण्डिए आसु-पन्ने।
घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारण्ड पक्खी व चरेऽप्पमत्तो॥६॥ उचित कार्य में शीघ्र प्रवृत्त होने वाली बुद्धि का स्वामी (आशु प्रज्ञ) ज्ञानी साधक मोहनिद्रा में सोये हुये लोगों के बीच में रहकर भी जागृत रहे। क्षणभर का भी विश्वास न करे। काल (क्षण) भयानक है, शरीर दुर्बल है अत: भारण्ड पक्षी के समान सदा अप्रमत्त होकर विचरण करना चाहिये॥६॥
Living amidst those in slumber of delusion, the wise and quick witted aspirant should always remain alert and not rest assured even for a moment. Passage of time is dangerous and body is feeble, therefore, one should always move with alertness like Bhaarand (a mythical bird). (6)
चरे पयाइं परिसंकमाणो, चं किंचि पासं इह मण्णमाणो।
लाभन्तरे जीविय वूहइत्ता, पच्छ परिन्नाय मलावधंसी॥७॥ साधक पग-पग पर दोषों की संभावना से सावधानीपूर्वक विचरण करे। छोटे-छोटे दोषों को भी पाश (जाल) माने। जब तक गुणों का लाभ हो तब तक शरीर को धारण करे और जब लाभ न होता दीखे तो धर्म-साधनापूर्वक शरीर को त्याग दे॥७॥
An aspirant should move with alertness for possible chances of faults at every step. He should consider even minor faults to be traps. He should maintain the body as long as it acquires virtues; and on realizing that it does not do so then he should transcend from it into the spiritual realm. (7)
छन्दं निरोहेण उवेइ मोक्खं, आसे जहा सिक्खिय-वम्मधारी।
पुव्वाइं वासाइं चरेऽप्पमत्तो, तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं ॥८॥ जिस प्रकार कवचयुक्त शिक्षित अश्व स्वच्छन्दता के निरोध से युद्ध में विजयी होता है, उसी प्रकार स्वेच्छाचार-त्यागी मुनि शीघ्र ही मुक्त हो जाता है। इसलिये मुनि पूर्व वर्षों में (साधना के प्रारम्भिक वर्षों से ही) अप्रमत्त होकर विचरण करे ॥ ८॥
As a trained horse with armour wins by restraining foot looseness, in the same way having abandoned recklessness, an ascetic soon attains liberation. That is why an ascetic should be free of stupor right from the early years (of his practice). (8)