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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
चउत्थं अज्झयणं : असंखयं
चतुर्थ अध्ययन : असंस्कृत
Chapter-4 : IRREPARABILITY
चतुर्थ अध्ययन [ 42 ]
असंखयं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं । एवं वियाणाहि जणे पमत्ते, कण्णू विहिंसा अजया गहिन्ति ॥ १ ॥
जीवन असंस्कृत है, टूटने पर जोड़ा (सांधा) नहीं जा सकता । अतः प्रमाद (आलस्य), आत्म-विस्मरण मत करो। वृद्धावस्था में कोई शरण नहीं होता। ऐसा जानो ( विचार करो ) कि प्रमादी, हिंसक, असंयमी तथा अजितेन्द्रिय मनुष्य किसकी शरण ग्रहण करेंगे ? ॥ १ ॥
Life is irreparable; once broken it cannot be welded. Therefore, avoid stupor or lethargy or dereliction (pramaad). There is no refuge for old age. Consider that whose refuge will the derelict, violent, undisciplined, slave of senses take? (1)
जे पावकम्मे धणं मणुस्सा, समाययन्ती अमई गहाय । पहाय ते पासपयट्टिए नरे, वेराणुबद्धा नरयं उवेन्ति ॥ २ ॥
अज्ञान एवं दुर्बुद्धिवश पापकर्मों से धन का उपार्जन एवं संचय करते हैं वे पापबंधन में पड़े
मनुष्य धन को यहीं छोड़कर तथा वैर ( शत्रुता ) का अनुबंध करके नरक में उत्पन्न होते हैं ॥ २ ॥
Out of ignorance and villainy, people who earn and accumulate wealth through sinful deeds, trapped in the bondage of demeritorious karmas, they leave that wealth here only and are born in hell entrapped in enmity. (2)
तेणे जहा सन्धि-मुहे गहीए, सकम्मुणा किच्चइ पावकारी । एवं पया पेच्च इहं च लोए, कडाव कम्माण न मोक्ख अत्थि ॥ ३॥
जिस प्रकार सेंध लगाता हुआ संधिमुख (मौके पर ) पकड़ा गया चोर अपने ही पापकर्मों से मृत्यु (त्रास, पीड़ा, छेदन - भेदन) पाता है इसी प्रकार जीव अपने ही किये हुये कर्मों का फल भोगे बिना कभी छुटकारा नहीं होता ॥ ३ ॥
Like the housebreaker, caught red handed at the spot, begets death (torture, pain) due to his own sinful deeds; in the same way a living being (soul) begets death (torture, pain) due to his own sinful deeds in this and the next life. This is because without suffering no one can escape the consequences of his actions. (3)
संसारमावन्न परस्स अट्ठा, साहारणं जं च करेइ कम्मं । कम्मस्स ते तस्स वेय-काले, न बन्धवा बन्धवयं उवेन्ति ॥ ४ ॥
संसारी जीव अपने व दूसरों (स्त्री- पुत्रादि) के लिये साधारण (सम्मिलित लाभ की इच्छा से) कर्म करता है। किन्तु उस कर्म के फलभोग के समय बन्धुजन सहायक नहीं होते ॥ ४ ॥
The worldly being (soul) acts for limited gains for himself and others (wife, son etc). However, at the time of bearing the fruits (torments) of those deeds, no relative comes to help. (4)