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[37] तृतीय अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
सु च द्धुं सद्धं च वीरियं पुण दुल्लहं । बहवे रोयमाणा वि, नो एणं पडिवज्जए ॥ १०॥
बहुत से व्यक्ति सद्धर्म सुनकर उस पर श्रद्धा भी कर लेते हैं, वे संयम ग्रहण करने में रुचि भी रखते हैं, किन्तु संयम ले नहीं पाते। अतः संयम में पुरुषार्थ और भी दुष्कर है ॥ १० ॥
After hearing the right religion, many people develop faith in it. They also get interested in getting initiated but fail to do so. Therefore, endeavour on the path of ascetic-discipline is even more difficult. (10)
माणुसत्तमि आयाओ, जो धम्मं सोच्च सद्दहे । तवस्सी वीरियं लद्धुं, संवुडे निद्धणे रयं ॥ ११ ॥
जो व्यक्ति मनुष्य जन्म पाकर सद्धर्म-श्रवण करता है, उस पर श्रद्धा रखता है और तप (संयम) में पुरुषार्थ - पराक्रम करके, आस्रवों का निरोध करता है और कर्मरूपी धूलि को धुन देता है, दूर कर देता है ॥ ११ ॥
The soul taking birth as man hears the true religion and puts firm faith in it, by vigorous endeavour in penance (ascetic-discipline) he blocks the inflow of karmas and thrashes out the karmic dust. (11)
सोही उज्जुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई । निव्वाणं परमं जाइ, घय- सित्तव्व पावए ॥ १२ ॥
सरल व्यक्ति को शुद्धि प्राप्त होती है, शुद्ध आत्मा-हृदय ही धर्म की अवस्थिति होती है, धर्मयुक्त व्यक्ति ही घृत सिंचित अग्नि के समान अपने आत्म-तेज को प्रगट करके परम निर्वाण प्राप्त करता है ॥ १२ ॥
A guileless person gains purity; religion gets ensconced only in a pure soul or heart. Only a person endowed with religion unveils his inner power, like the fire fueled with butter-oil and attains liberation. (12)
विगिंच कम्मुणो हेउं, जसं संचिणु खन्तिए ।
पाढवं सरीरं हिच्चा, उड्ढं पक्कमई दिसं ॥ १३ ॥
कर्म (बंधन) के कारणों को क्षय (दूर) करके तथा क्षमा द्वारा यश का अर्जन करके इस भौतिक शरीर को छोड़कर जीव ऊर्ध्व दिशा (स्वर्ग अथवा मोक्ष) की ओर गमन करता है ॥ १३ ॥
Destroying the causes of bondage of karmas and acquiring fame by forgiveness, the soul moves upward (heavens or liberation). (13)
विसालिसेहिं सीलेहिं, जक्खा उत्तर- उत्तरा । महासुक्का व दिप्पन्ता, मन्नन्ता अपुणच्चवं ॥ १४ ॥
विसदृश ( अनेक प्रकार के) शील व्रतों का पालन करके जीव यक्ष (देव) बनते हैं; वे (देव) उत्तरोत्तर समृद्धि से महाशुक्ल (तेजस्वी) होकर दीप्तिमान होते हैं और तब वे ऐसा मानने लगते हैं कि स्वर्ग से च्यवन नहीं होता, अर्थात् देव अमर होते हैं ॥ १४ ॥