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[33] तृतीय अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
| तृतीय अध्ययन : चतुरंगीय |
पूर्वालोक
प्रस्तुत अध्ययन में मोक्ष-प्राप्ति के लिये आवश्यक चार अंगों का विवेचन है; वे अंग हैं(१) मनुष्यत्व, (२) श्रुति अर्थात् सद्धर्म का श्रवण, (३) श्रद्धा-सुने हुये सद्धर्म पर श्रद्धा (विश्वास) रखना, और (४) संयम में वीर्य प्रकट करना, पुरुषार्थ एवं पराक्रम करना।
पिछले द्वितीय अध्ययन परीषह प्रविभक्ति में साधु-जीवन में आने वाली कठिनाइयों का वर्णन किया गया था। किन्तु प्रस्तुत अध्ययन का विषय पूर्व अध्ययन की अपेक्षा अधिक विस्तृत है। पूर्व अध्ययन में सिर्फ साधुचर्या का वर्णन था और इसमें साधक के सम्पूर्ण जीवन का। ___यदि मानव अपने जीवन में आने वाली कठिनाइयों, बाधाओं, विघ्नों, आपत्ति-विपत्तियों से घबराकर पलायन-वृत्ति स्वीकार कर ले तो उसका पतन हो जाता है, उसे निम्न योनियों में जन्म ग्रहण करने को विवश होना पड़ता है।
यहाँ मोक्ष-प्राप्ति के लिये आवश्यक चार अंगों का वर्णन किया गया है, जिनमें प्रथम है-मनुष्यत्व।
नारक जीव सतत वेदनाओं से पीड़ित रहते हैं और देवता भोग-विलास में मग्न; अतः अति पीड़ा और अति भोग के कारण दोनों को ही धर्म के विषय में सोचने तक का अवकाश ही नहीं मिलता। पंचेन्द्रिय संज्ञी तिर्यंच जीव को शुभ कर्मोदयवश योग्य निमित्त मिल जाये तो वह अपनी आत्मा का उत्थान तो कर सकता है परन्तु मुक्ति-प्राप्ति-योग्य पुरुषार्थ नहीं कर सकता। ___ केवल मनुष्य ही इस योग्य होता है। मानव योनि प्राप्त होना ही सब कुछ नहीं है। कुछ मानव इन्द्रियहीन, अल्पायु, क्रूरकर्मा, असत्य दृष्टि वाले भी होते हैं। अत: मोक्ष-प्राप्ति के लिये प्रथम आवश्यक अंग मानवता अथवा मनुष्यत्व है। ___ मानवता से युक्त बहुतों को सद्धर्म श्रवण में रुचि नहीं होती। कुछ लोग धर्म को सुन भी लेते हैं तो उस पर श्रद्धा-अटूट और अडिग विश्वास नहीं कर पाते। अनेक मत-पंथों और विचारकों के मन्तव्यों को पढ़-सुनकर उनकी सद्धर्म के प्रति श्रद्धा डगमगा जाती है। इसीलिए कहा है-श्रद्धा परम दुर्लभ
___ यदि श्रद्धा भी हो जाय तो सद्धर्म में पराक्रम-श्रमणधर्म का पालन और भी दुष्कर है। सांसारिक प्रपंचों तथा अन्य अनेक कारणों से व्यक्ति सद्धर्माचरण नहीं कर पाता।
प्रस्तुत अध्ययन में सार रूप में बताया गया है कि इन चारों अंगों की प्राप्ति और सम्यक् परिपालन से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इस अध्ययन में २० गाथाएँ हैं।