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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
१६. रोग परीषह
द्वितीय अध्ययन [ 28 ]
नच्चा उप्पइयं दुक्खं, वेयणाए दुहट्ठिए । अदीणो थावए पन्नं, पुट्ठो तत्थऽहियासए ॥ ३२॥ तेगिच्छं नाभिनन्देज्जा, संचिक्खऽत्तगवे सए । एवं खु तस्स सामण्णं, जं न कुज्जा न कारवे ॥ ३३ ॥
अपने कृत-कर्मों के कारण ही रोग उत्पन्न होता है - यह मानकर उस वेदना से मन को व्यथित न होने दे। अपनी बुद्धि को स्थिर संतुलित रखता हुआ मुनि प्राप्त पीड़ा को समभावपूर्वक सहन करे ॥ ३२ ॥
आत्मा की गवेषणा करने वाला साधु रोग हो जाने पर उसकी (सावद्य) चिकित्सा न करे, न कराये और न अनुमोदन करे, समाधिपूर्वक रहे । यही उसका श्रमणत्व है ॥ ३३ ॥
16. Roag-parishaha (Ailment related affliction)
Considering that ailment is caused by his own karmas, an ascetic should not let his mind grieve due to the resultant pain. Keeping his mind calm and balanced the ascetic should endure that pain with equanimity. (32)
The self-searching ascetic should not undergo any (sinful) treatment when ailing; he should also neither inspire others, nor approve of others for arranging the same. He should embrace serenity, which, indeed, is his asceticism. (33)
१७. तृण - स्पर्श परीषह
अचेलगस्स लूहस्स, संजयस्स तवस्सिणो । तसु सयमाणस्स, हुज्जा गाय - विराहणा ॥ ३४॥ आयवस्स निवाएणं, अउला हवड़ वेयणा । एवं नच्चा न सेवन्ति तन्तुजं तण-तज्जिया ॥ ३५ ॥
अचेलक (वस्त्ररहित) और रूखे शरीर वाले तपस्वी श्रमण को (शीतकाल में) तृण (घास - पुआल ) की शय्या पर सोने से, उसके शरीर को उन तृणों की चुभन से पीड़ा होती रहती है ॥ ३४ ॥
( ग्रीष्मकाल में ) सूर्य की प्रचण्ड रश्मियों के कारण भी तपस्वी श्रमण को असह्य वेदना होती है - ऐसा जानकर भी तृणों से पीड़ित मुनि वस्त्र की इच्छा नहीं करते हैं ॥ ३५ ॥
17. Trina-sparsh-parishaha (Hay or straw related affliction)
An austerity observing unclad ascetic with weather-beaten body, when sleeping on a bed of straw or hay (during winter) suffers the pain of prickly sensation due to straw. (34)
The scorching sunrays (during summer) too cause intolerable agony to an ascetic observing austerities. Knowing all this the ascetic suffering pain of straws does not desire for a garb. (35)