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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
गाथा १०७ - तेजस्, वायु और उदार त्रस - ये त्रस के तीन भेद हैं। तेजस् और वायु एकेन्द्रिय हैं, अत: अन्यत्र इनकी गणना पाँच स्थावरों में की गई है। यह पक्ष सैद्धान्तिक है। स्थावर नामकर्म का उदय होने से ये निश्चय से स्थावर हैं, त्रस नहीं । केवल एक देश से दूसरे देश में त्रसन अर्थात् संक्रमण क्रिया होने से तेजस् और वायु की त्रस में गणना की गई है। इसका परिणाम यह हुआ कि त्रस के उदार और अनुदार भेद करने पड़े। आगे चलकर तेजस् और वायु को 'गतित्रस' और द्वीन्द्रिय आदि को त्रसनाम कर्म के उदय के कारण 'लब्धि त्रस' कहा गया। स्थानांगसूत्र (३/२/१६४) में उक्त तीनों को त्रस संज्ञा दी है। श्वेताम्बरसम्मत तत्त्वार्थसूत्र में भी ऐसा ही उल्लेख है । आचारांगसूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध सर्वाधिक प्राचीन आगम माना जाता है। उसमें यह जीवनिकाय का क्रम एक भिन्न ही प्रकार का है- पृथ्वी, अग्नि, वनस्पति, त्रस और वायु ।
[565] षट्त्रिंश अध्ययन
गाथा १६९–नरक से निकलकर पुन: नरक में ही उत्पन्न होने का जघन्य व्यवधानकाल अन्तर्मुहूर्त्त का बताया है, उसका अभिप्राय यह है कि नारक जीव नरक से निकलकर संख्यात वर्षायुष्क गर्भज तिर्यंच और मनुष्य में ही जन्म लेता है। वहाँ से अति क्लिष्ट अध्यवसाय वाला कोई जीव अन्तर्मुहूर्त्त परिणाम जघन्य आयु भोगकर पुन: नरक में ही उत्पन्न हो सकता है।
गाथा १७० – अतिशय मूढ़ता को संमूर्च्छा कहते हैं। संमूर्च्छा वाला प्राणी संमूच्छिम कहलाता है। गर्भ से उत्पन्न न होने वाले तिर्यंच तथा मनुष्य मनःपर्याप्ति के अभाव से सदैव अत्यन्त मूच्छित जैसी मूढ़ स्थिति में रहते हैं।
'गर्भं व्युत्क्रान्तिक' शब्द में व्युत्क्रान्तिक का अर्थ उत्पत्ति है।
गाथा १८० - स्थलचर चतुष्पदों में एकखुर अश्व आदि हैं, जिनका खुर एक है, अखण्ड है, फटा नहीं है। द्विखुर गाय आदि हैं, जिनके खुर फटे हुए होने से दो अंशों में विभक्त हैं। गण्डी अर्थात् कमलकर्णिका के समान जिनके पैर वृत्ताकार गोल हैं, वे हाथी आदि गण्डी पद हैं। नखसहित पैर वाले सिंह आदि सनख पद हैं।
गाथा १८१ - भुजाओं से परिसर्पण (गति) करने वाले नकुल, मूषक आदि भुज-परिसर्प हैं तथा उर (वक्ष, छाती) से परिसर्पण करने वाले सर्प आदि उर परिसर्प हैं।
गाथा १८५ - स्थलचरों की उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व तीन पल्योपम की बताई है, उसका अभिप्राय यह है कि पल्योपम आयु वाले तो मरकर पुन: वहीं पल्योपम की स्थिति वाले स्थलचर होते नहीं हैं। मरकर देवलोक में जाते हैं। पूर्व कोटि आयु वाले अवश्य इतनी ही स्थिति वाले के रूप में पुन: उत्पन्न हो सकते हैं। वे भी सात-आठ भव से अधिक नहीं, अतः पूर्व कोटि आयु के पृथक्त्व भव ग्रहण कर अन्त
में पल्योपम आयु पाने वाले जीवों की अपेक्षा से यह उत्कृष्ट कार्यस्थिति बताई है।
गाथा १८८ - चर्म की पंखों वाले चमगादड़ आदि चर्म पक्षी हैं और रोम की पंखों वाले हंस आदि रोम पक्षी हैं। समुद्ग अर्थात् डिब्बा के समान सदैव बन्द पंखों वाले समुद्ग पक्षी होते हैं । सदैव फैली हुई पंखों वाले वितत पक्षी कहलाते हैं।
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