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[473] त्रयस्त्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
उदहीसरिसनामाणं, तीसई कोडिकोडिओ।
उक्कोसिया ठिई होइ, अन्तोमुहुत्तं जहन्निया॥१९॥ उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम की और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है॥ १९॥
The maximum duration (of this bondage) is of thirty Koda-kodi Sagaropam (a metaphoric unit of time); and the minimum duration is one Antarmuhurt (slightly less than forty-eight minutes). (19)
आवरणिज्जाण दुण्हपि, वेयणिज्जे तहेव य।
अन्तराए य कम्मम्मि, ठिई एसा वियाहिया॥२०॥ • यह (पूर्व गाथा में वर्णित) स्थिति दोनों आवरणीय (ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय) कर्मों की तथा वेदनीय और अन्तराय कर्म की बताई गई है॥ २०॥
The duration (aforesaid) is with regard to the two obscuring karmas (knowledge obscuring and perception/faith obscuring) as well as emotion evoking and power hindering karmas. (20)
उदहीसरिसनामाणं, सत्तर कोडिकोडिओ।
मोहणिज्जस्स उक्कोसा, अन्तोमुहुत्तं जहन्निया॥२१॥ मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटाकोटि सागरोपम की और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की बताई गई है॥ २१ ॥
The maximum duration (of this bondage) with regard to deluding karma is of seventy Koda-kodi Sagaropam (a metaphoric unit of time) and the minimum is one Antarmuhurt (slightly less than forty-eight minutes). (21)
तेत्तीस सागरोवमा, उक्कोसेण वियाहिया।
ठिई उ आउकम्मस्स, अन्तोमुहुत्तं जहन्निया॥२२॥ आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है॥ २२ ॥
The maximum duration (of this bondage) with regard to life-span determining karma is of thirty three Sagaropam (a metaphoric unit of time) and the minimum is one Antarmuhurt (slightly less than forty-eight minutes). (22)
उदहीसरिसनामाणं, वीसई कोडिकोडिओ।
नामगोत्ताण उक्कोसा, अट्ठमुहुत्ता जहन्निया॥२३॥ नाम और गोत्रकर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटाकोटि सागरोपम की है और जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त की है॥ २३॥
The maximum duration (of this bondage) with regard to body-type and status determining karmas is of twenty Koda-kodi Sagaropam (a metaphoric unit of time) and the minimum is eight Muhurt (one Muhurt is forty-eight minutes). (23)
सिद्धाणऽणन्तभागो य, अणुभागा हवन्ति उ। सव्वेसु वि पएसग्गं, सव्वजीवेसुऽइच्छियं ॥२४॥