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[453 ] द्वात्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
जो अमनोज्ञ रस के प्रति तीव्र-अत्यन्त उग्र द्वेष करता है वह प्राणी उसी क्षण (तत्काल) अपने दुर्दम्य द्वेष-दोष के फलस्वरूप दुःख पाता है। इस (दु:ख) में रस का बिल्कुल भी अपराध अथवा दोष नहीं है। ६४॥
Contrary to this, he who is intensely averse (to unpleasant taste) instantly suffers pain due to his own insurmountable aversion. There is no fault of taste (pleasant or unpleasant) in this. (64)
एगन्तरत्ते रुइरे रसम्मि, अतालिसे से कुणई पओसं।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो॥६५॥ जो व्यक्ति रुचिर (रुचिकर-स्वाद) रस में अत्यधिक रक्त हो जाता है और उसके प्रतिकूल (अरुचिकर-रस-स्वाद) रस में द्वेष करता है वह अज्ञानी दुःखजन्य पीड़ा (कष्ट) को पाता है। लेकिन विरक्त मुनि (मनोज्ञ-अमनोज्ञ रस-सम्बन्धी राग-द्वेष में) लिप्त नहीं होता॥६५॥
He who gets exclusively and excessively infatuated with delicious taste is averse to 'repulsive taste. That ignorant suffers pain. But the detached ascetic does not get involved in them (pleasant and unpleasant taste), does not have attachment or aversion for them. (65)
रसाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे।
चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिटे॥६६॥ रस की आशा करता हुआ जीव अनेक प्रकार से चराचर (त्रस-स्थावर) जीवों की हिंसा करता है। अपने स्वार्थ को ही सर्वोपरि मानने वाला क्लिष्ट अज्ञानी उन (चराचर) जीवों को विचित्र-विचित्र प्रकार से अनुतापित और पीड़ित करता है॥६६॥
A person hankering for pleasant taste indulges in violence towards mobile and immobile beings many ways. Giving importance to his self-interest and tarnished with attachment and aversion, an ignorant being torments those beings various ways. (66)
रसाणुवाएण परिग्गहेण, उप्यायणे रक्खणसन्निओगे।
वए विओगे य कहिं सुहं से ?, संभोगकाले य अतित्तिलाभे॥६७॥ (मनोज्ञ) रस में अधिक राग और परिग्रह में ममत्व होने से उस (रस) को उत्पन्न करने, उसकी भली-भाँति रक्षा करने, सन्नियोग तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कैसे मिल सकता है? और उस मनोज्ञ रस का उपभोग करते समय भी अतृप्ति का ही दुःख होता है, तृप्ति नहीं होती॥ ६७॥
How can a man derive happiness on account of love and fondness for delicious taste while he creates, protects, associates (trades and exchanges), expends and loses the same things that enhance delicious taste)? Even when he enjoys them he feels unsatisfied, does not ever experience satiety. (67)
रसे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्टिं। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं॥६८॥