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In सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
द्वात्रिंश अध्ययन [452]
गन्धे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण।
न लिप्पई भवमज्झे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणी-पलासं॥६०॥ गंध (मनोज्ञ और अमनोज्ञ) से विरक्त मनुष्य को अवसाद (शोक) नहीं होता, वह संसार में रहता हुआ भी दु:ख परम्पराओं से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता जिस प्रकार जल में रहता हुआ भी कमलपत्र जल से निर्लिप्त रहता है॥ ६०॥
(But) A person apathetic to smells is not aggrieved; he remains free from these sequences of misery. As a lotus leaf, though in a pond, remains unaffected by water, in the same way that person remains unaffected (by attachment and aversion for smells), though living in the world. (60)
जिब्भाए रसं गहणं वयन्ति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु।
तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो॥६१॥ . जिह्वा का ग्राह्य विषय रस (स्वाद) है। जो रस राग का हेतु बनता है उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जो रस द्वेष उत्पन्न करने वाला होता है, वह अमनोज्ञ कहलाता है तथा जो रस में सम-समभाव रखता है, वह वीतरागी होता है॥ ६१॥
That which perceives taste is called tongue. If it (taste) is pleasant then it becomes the cause of attachment and if it is unpleasant it becomes the cause of aversion. He who remains equanimous (beyond attachment and aversion) in both the conditions is detached. (61)
रसस्स जिब्भं गहणं वयन्ति, जिब्भाए रसं गहणं वयन्ति।
रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु॥६२॥ जिह्वा को रस की ग्रहण करने वाली और रस को जिह्वा का ग्राह्य विषय कहा जाता है। राग के हेतु रस को समनोज्ञ और द्वेष के कारणभूत रस को अमनोज्ञ कहा गया है॥ ६२॥
That which savours taste is called tongue and the object of savouring by tongue is called taste. The cause of attachment is called pleasant and the cause of aversion is unpleasant. (62)
रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं।
रागाउरे वडिसविभिन्नकाए, मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे॥६३॥ जो व्यक्ति (मनोज्ञ) रसों में अत्यन्त गृद्ध होता है वह अकाल में उसी तरह विनाश को पाता है जिस प्रकार माँस-भोजन के लुब्धक रागातुर मत्स्य का शरीर (गला-कंठ) लोहे के काँटे से बिंध जाता है (और उसकी मृत्यु हो जाती है)॥ ६३॥
One who is infatuated with pleasant taste is plagued by attachment to end up in untimely ruin, just as a fish, obsessed by taste (taste of a shred of meat), is hooked to death on swallowing the bait. (63)
जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसिक्खणे से उ उवेइ दुक्खं। दुइन्तदोसेण सएण जन्तू, रसं न किंचि अवरज्झई से॥६४॥