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ना सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
द्वात्रिंश अध्ययन [450]
Contrary to this, he who is intensely averse (to unpleasant smell) instantly suffers pain due to his own insurmountable aversion. There is no fault of smell (pleasant or unpleasant) in this. (51)
एगन्तरत्ते रुइरंसि गन्धे, अतालिसे से कुणई पओसं।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो॥५२॥ जो रुचिर (प्रिय-मनोज्ञ) सुगन्ध में अत्यधिक गृद्ध रहता है और अतादृश (अप्रिय-अमनोज्ञ) गन्ध में प्रद्वेष करता है वह अज्ञानी जीव दु:ख के समूह को प्राप्त करता है। लेकिन विरागी मुनि उससे (प्रिय-अप्रिय गंध में राग-द्वेष न करके) लिप्त नहीं होता ॥५२॥
He who gets exclusively and excessively infatuated with enchanting fragrance is averse to repulsive smell. That ignorant suffers pain. But the detached ascetic does not get involved in them (pleasant and unpleasant smell), does not have attachment or aversion for them. (52)
गन्धाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे।
चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तद्वगुरू किलिटे॥५३॥ प्रिय सुगन्ध की आशा के पीछे दौड़ता हुआ जीव चराचर-त्रस-स्थावर जीवों की अनेक रूप से हिंसा करता है। अपने ही स्वार्थ को प्रमुखता देने वाला क्लिष्ट अज्ञानी उन्हें-उन जीवों को विचित्र-विचित्र प्रकार से परितापित और पीड़ित करता है॥ ५३॥
A person hankering for pleasant smell indulges in violence towards mobile and immobile beings many ways. Giving importance to his self-interest and tarnished with attachment and aversion, an ignorant being torments those beings various ways. (53)
गन्धाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे।
वए विओगे य कहिं सुहं से?, संभोगकाले य अतित्तिलाभे॥५४॥ गंध (प्रिय सुगन्ध) के प्रति अत्यधिक राग और परिग्रह-ममत्व के कारण गंध को उत्पन्न करने, उसकी रक्षा करने और सन्नियोजन, व्यय तथा वियोग में सुख कहाँ है और उपभोग के समय भी अतृप्ति ही प्राप्त होती है (यह भी दुःख ही है)॥ ५४॥
How can a man derive happiness on account of love and fondness for fragrance while he creates, protects, associates (trades and exchanges), expends and loses the same (things that enhance fragrance)? Even when he enjoys them he feels unsatisfied, does not ever experience satiety. (54)
गन्धे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेि।
अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥५५॥ गंध में अतृप्त (असंतुष्ट) और उसके (गन्ध के) परिग्रहण में अत्यधिक आसक्त व्यक्ति को तुष्टि प्राप्त नहीं होती। वह अतुष्टि से दुःखी और लोभ की व्याकुलता-अधिकता के कारण दूसरों की न दी हुई वस्तु को ग्रहण कर लेता है, अदत्तादान-चोरी करता है॥ ५५॥