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[449] द्वात्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
शब्द (मनोज्ञ तथा अमनोज्ञ दोनों प्रकार के शब्द) से विरक्त-उदासीन व्यक्ति को शोक-अवसाद नहीं होता और वह इस प्रकार की दुःख परम्पराओं-श्रृंखलाओं से भी दूर रहता है तथा जिस प्रकार जल में रहता हुआ भी कमल-पत्र जल से निर्लिप्त रहता है उसी प्रकार मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दों से विरक्त व्यक्ति भी संसार में रहता हुआ भी उन शब्दों में लिप्त नहीं होता॥ ४७॥
(But) a person apathetic to sounds is not aggrieved; he remains free from these sequences of misery. As a lotus leaf, though in a pond, remains unaffected by water, in the same way that person remains unaffected (by attachment and aversion for sounds), though living in the world. (47)
घाणस्स गन्धं गहणं वयन्ति, तं रागहेडं तु मणुन्नमाहु।
तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो॥४८॥ घ्राण (घ्राणेन्द्रिय-नासिका) के ग्राह्य विषय को गंध कहा जाता है। राग के हेतु गन्ध को मनोज्ञ (सुगन्ध) कहा जाता है और जो द्वेष का हेतु बनती है वह अमनोज्ञ (दुर्गन्ध) कहलाती है। जो गन्ध में सम रहता है, वह वीतराग है॥ ४८॥
That which perceives smell is called nose. If it (smell) is pleasant then it becomes the cause of attachment and if it is unpleasant it becomes the cause of aversion. He who remains equanimous (beyond attachment and aversion) in both the conditions is detached. (48)
. गन्धस्स घाणं गहणं वयन्ति, घाणस्स गन्धं गहणं वयन्ति।
रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु॥४९॥ गन्ध को ग्रहण करने वाला घ्राण है और घ्राण का ग्राह्य विषय गन्ध कही जाती है। राग को उत्पन्न करने वाली-कारणभूत समनोज्ञ गन्ध है और द्वेष की कारणभूत अमनोज्ञ गन्ध है॥ ४९ ॥
That which sniffs smell is called nose and the object of sniffing by nose is called smell. The cause of attachment is called pleasant and the cause of aversion is unpleasant. (49)
गन्धेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं। __ रागाउरे ओसहिगन्धगिद्धे, सप्पे बिलाओ विव निक्खमन्ते॥५०॥ जो (मनोज्ञ) गन्ध में तीव्र रूप से आसक्त रहता है वह अकाल (असमय) में विनष्ट हो जाता है। जिस प्रकार औषधियों की गन्ध में गृद्ध राग से आतुर बना हुआ सर्प बिल से बाहर निकलते ही विनष्ट हो जाता है॥ ५० ॥
One who is infatuated with pleasant smell is plagued by attachment to end up in untimely ruin, just as a snake, obsessed by smell (fragrance of herbs), is drawn into death the moment it is out of its hole. (50)
जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसिक्खणे से उ उवेइ दुक्खं।
दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू, न किंचि गन्धं अवरज्झई से॥५१॥ जो अमनोज्ञ गन्ध में अत्यधिक तीव्र द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दमनीय द्वेष के कारण दु:खी हो जाता है। इसमें गन्ध का कोई दोष नहीं है॥५१॥