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[443 ] द्वात्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
चक्षु (नेत्रों) का ग्रहण करने योग्य विषय रूप कहा जाता है। यदि वह मनोज्ञ होता है तो राग का कारण (हेतु) बनता है और यदि वह अमनोज्ञ होता है तो द्वेष का हेतु बन जाता है। इन दोनों (मनोज्ञ-अमनोज्ञ) स्थितियों में जो सम (राग-द्वेषातीत) रहता है, वह वीतरागी होता है॥ २२ ॥
That which perceives form is called eye. If it (form) is pleasant then it becomes the cause of attachment and if it is unpleasant it becomes the cause of aversion. He who remains equanimous (beyond attachment and aversion) in both the conditions is detached. (22)
रूवस्स चक्खं गहणं वयन्ति, चक्खुस्स रूवं गहणं वयन्ति।
रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु॥२३॥ रूप का ग्रहण करने वाला चक्षु कहा जाता है और चक्षु का ग्राह्य विषय रूप कहलाता है। राग के हेतु को मनोज्ञ कहा है और द्वेष का हेतु (कारण) अमनोज्ञ है॥ २३ ॥
That which perceives form is called eye and the object of perception by eye is called form: The cause of attachment is called pleasant and the cause of aversion is unpleasant. (23)
रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं।
रागाउरे से जहवा पयंगे, आलोयलोले समुवेइ मच्चुं॥२४॥ जो (मनोज्ञ) रूप में तीव्र गृद्धि (आसक्ति.) रखता है, वह राग में आतुर होकर अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है, विनष्ट हो जाता है जिस प्रकार प्रकाश-लोलुप पतंगा मृत्यु को प्राप्त होता है, मर जाता है॥ २४॥ .
One who is infatuated with pleasant appearance is plagued by attachment to end up in untimely ruin, just as a moth, obsessed by light, is drawn into death. (24)
जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसिक्खणे से उ उवेइ दुक्खं।
दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू, न किंचि रूवं अवरज्झई से॥२५॥ (इसके विपरीत) जो (अमनोज्ञ रूप के प्रति) तीव्र द्वेष करता है वह प्राणी उसी क्षण अपने स्वयं के दुर्दान्त (दुर्दमनीय) द्वेष के कारण दुःख ही प्राप्त करता है। इसमें (मनोज्ञ और अमनोज्ञ) रूप का कुछ भी अपराध (दोष) नहीं है।॥ २५ ॥
Contrary to this, he who is intensely averse (to unpleasant appearance) instantly suffers pain due to his own insurmountable aversion. There is no fault of appearance (pleasant or unpleasant) in this. (25)
एगन्तरत्ते रुइरंसि रूवे, अतालिसे से कुणई पओसं।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो॥२६॥ जो रुचिर (सुन्दर) रूप में एकान्ततः अत्यधिक अनुरक्त होता है वह अतादृश-कुरूप में प्रद्वेष करता है, वह अज्ञानी दु:ख की पीड़ा (कष्ट) को पाता है। किन्तु विरागी मुनि उनमें (मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूपों में) लिप्त नहीं होता, राग-द्वेष नहीं करता ॥ २६ ॥