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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
द्वात्रिंश अध्ययन [ 442]
To a man, who longs for liberation, is frightened from the cycles of rebirth (samsar) and stable in religion, there is nothing more difficult than women capable of deluding the mind of an ignorant. (17)
एए य संगे समइक्कमित्ता, सुहत्तरा जेव भवन्ति सेसा । जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाणा ॥ १८ ॥
इन (उपर्युक्त स्त्री-सम्बन्धी) संपर्कों को सम्यक् (भली प्रकार) अतिक्रमण (पार) कर लेने पर शेष सभी संसर्ग सुख से पार करने योग्य हो जाते हैं जिस प्रकार कि महासागर को तैरकर पार कर लेने के बाद गंगा जैसी नदियों को पार कर लेना सुकर- सरल हो जाता है ॥ १८ ॥
After properly overcoming the aforesaid affinities (relating to women) all other affinities become easy to overcome in the same way as after crossing the ocean it becomes easy to cross rivers like Ganges. (18)
कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स । इयं माणसि च किंचि, तस्सऽन्तगं गच्छइ वीयरागो ॥ १९ ॥
देवताओं सहित सम्पूर्ण लोक के ( प्राणियों के) जितने भी शारीरिक तथा मानसिक दुःख हैं वे सब काम (कामना-वासना) की अनुगृद्धि ( अतिशय आसक्ति) से उत्पन्न होते हैं। इन दुःखों का अन्त (समाप्ति) केवली वीतरागी ही कर पाते हैं ॥ १९ ॥
All the physical and mental miseries of living beings of the universe along with divine beings have their origin in intense obsession of lust. Only the detached omniscient is able to put an end to all miseries. (19)
जहा य किंपागफला मणोरमा, रसेण वण्णेण य भुज्जमाणा । ते खुड्डए जीविय पच्चमाणा, एओवमा कामगुणा विवागे ॥ २० ॥
जिस प्रकार किम्पाग फल रस, रूप और खाने में मनोरम - चित्ताकर्षक लगते हैं, किन्तु परिणाम में जीवन का अन्त कर देते हैं। इसी प्रकार कामगुण भी विपाक (परिणाम) में विनाशकारी होते हैं॥ २० ॥
As the fruits of poisonous tree (Kimpaak) are attractive and tasty to look and eat, but their consequence is the end life. In the same way lust is destructive in consequence. (20)
जे इन्दियाणं विसया मणुन्ना, न तेसु भावं निसिरे कयाइ । न या मणुन्ने म पि कुज्जा, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥ २१ ॥
समाधि की इच्छा वाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों में कदापि रागभाव न करे और अमनोज्ञ विषयों में मन से भी द्वेष (द्वेषभाव) न करे ॥ २१ ॥
An austerity observing ascetic seeker of serenity must never have attachment for objects enticing to sense organs; he should also not have aversion for those unattractive to sense organs. (21)
चक्खुस्स रूवं गहणं वयन्ति तं रागहेडं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ २२ ॥