________________
[435] द्वात्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
बत्तीसवाँ अध्ययन : प्रमाद - स्थान
पूर्वालोक
प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'प्रमाद - स्थान' है। इसमें साधक की साधना के प्रमुख विघ्न प्रमाद के कारणों का वर्णन करके साधक को उनसे दूर रहने की - निवारण की प्रेरणा दी गई है।
प्रमाद के भेद-प्रभेद अनेक प्रकार से बताये गये हैं
प्रमाद के प्रमुख भेद ५ हैं - (१) मद्य (मद), (२) विषय, (३) कषाय, (४) विकथा, और (५) निद्रा - निन्दा अथवा निद्रा । इन्हीं के पन्द्रह अवान्तर भेद हो जाते हैं; क्योंकि विषय (इन्द्रियविषय) ५ प्रकार के हैं, कषाय और विकथा - दोनों के चार-चार भेद हैं।
अन्य अपेक्षा से प्रमाद के ८ भेद भी बताये गये हैं- (१) अज्ञान, (२) संशय, (३) मिथ्याज्ञान, (४) राग, (५) द्वेष, (६) स्मृतिभ्रंश, (७) धर्म के प्रति अनादर, और (८) मन-वचन-काया का दुष्प्रणिधान । (प्रवचनसारोद्धार, द्वार २०७, गाथा १२२ - १२३)
सामान्य शब्दों में प्रमाद का अभिप्राय है- अजागृति, असावधानी, आलस्य, अविवेक, आत्म- लक्ष्य के प्रति स्मृति न रहना (Negligence) आदि ।
यह सत्य है कि संयम यात्रा के लिए साधक को भी कुछ अपरिहार्य साधनों की आवश्यकता होती है । साधनों के बिना उसका जीवन यापन संभव ही नहीं है।
लेकिन साधन अपने आप में न शुभ हैं, न अशुभ; न अच्छे हैं, न बुरे। उनकी शुभता - अशुभता उपयोक्ता के भाव, मनोदशाएँ, वृत्ति - प्रवृत्तियाँ, राग-द्वेष आदि निर्धारित करते हैं।
भोजन शरीर-रक्षा के लिए अत्यावश्यक है । किन्तु यदि भोजन सिर्फ भोजन के लिए किया जाय, स्वादिष्ट पकवानों को अधिक मात्रा में खा लिया जाय तो वही भोजन उदर-व्याधियों और अनेक रोगों का कारण बनकर साधना में विघ्न बन जाता है।
शयन और आसन भी साधक के लिए आवश्यक हैं, किन्तु यदि वे स्त्री- नपुंसक से संसक्त हों तो काम विकारवर्द्धक बन जाते हैं, साधक अपने मन पर नियन्त्रण न रख पायेगा और उसकी साधना में विघ्न खड़ा हो जायेगा ।
यही बात अन्य साधनों के विषय में भी सत्य है।
साधक का कर्त्तव्य है, साधनों को मात्र साधन समझे और इसी दृष्टि से उनका उपयोग करे, उनके प्रति मोह-ममत्व-मूर्च्छा के भाव मन में न आने दे।
राग-द्वेष, आसक्ति, मिथ्या- दर्शन, मोहादि का त्याग संसार के दुःखों से मुक्ति और एकान्त आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिए अनिवार्य है।
प्रमाद में शिष्यैषणा भी सम्मिलित है। अपने शरीर की सेवा तथा सुख-सुविधा के लिए साधक को शिष्य बनाना उचित नहीं है। यद्यपि साधक को सहायक की आवश्यकता होती है, वह सहायक साथी मुनि भी हो सकता है और शिष्य भी । लेकिन आवश्यक है कि वह धर्म में प्रवीण और साधना में सहायक हो । यदि ऐसा सहायक न मिले तो साधक ज्ञान-दर्शन- चारित्र से युक्त होकर एकाकी विचरण करे ।
प्रमाद-स्थानों से बचकर वीतराग के मार्ग पर चलना चाहिए। वीतरागी साधक ही मुक्ति प्राप्त करता है । प्रस्तुत अध्ययन में १११ गाथाएँ हैं ।