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तर, सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
एकत्रिंश अध्ययन [430]
कहने वाला शास्त्र, (६) स्वर शास्त्र, (७) व्यंजन शास्त्र-तिल, मष आदि का वर्णन करने वाला शास्त्र, (८) लक्षण शास्त्र-स्त्री-पुरुषों के लक्षणों का शुभाशुभ फल बताने वाला शास्त्र।
ये आठों ही सूत्र, वृत्ति और उनकी वार्तिक के भेद से चौबीस शास्त्र हो जाते हैं।
(२५) विकथानुयोग-अर्थ और काम के उपायों को बताने वाले शास्त्र, जैसे वात्स्यायनकृत कामसूत्र आदि, (२६) विद्यानुयोग-रोहिणी आदि विद्याओं की सिद्धि के उपाय बताने वाले शास्त्र, (२७) मन्त्रानुयोग-मन्त्र आदि के द्वारा कार्य सिद्धि बताने वाले शास्त्र, (२८) योगानुयोग-वशीकरण आदि योग बताने वाले शास्त्र, (२९) अन्यतीर्थिकानुयोग-अन्यतीर्थिकों द्वारा प्रवर्तित एवं अभिमत हिंसा-प्रधान आचारशास्त्र।
गाथा १९-महामोहनीय के ३० स्थान-(देखें दशाश्रुतस्कन्ध एवं समवायांगसूत्र) सिद्धों के ३१ अतिशायी गुण-(देखें समवायांग ३१) बत्तीस योग संग्रहमन, वचन, काया के प्रशस्त योगों का एकत्रीकरण योग संग्रह है।
१. गुरुजनों के पास दोषों की आलोचना करना, २. किसी के दोषों की आलोचना सुनकर अन्य के पास न कहना, ३. संकट पड़ने पर भी धर्म में दृढ़ रहना, ४. आसक्तिरहित तप करना, ५. सूत्रार्थग्रहणरूप ग्रहण शिक्षा एवं प्रतिलेखना आदिरूप आसेवना-आचार शिक्षा का अभ्यास करना, ६. शोभा-शृंगार नहीं करना, ७. पूजा-प्रतिष्ठा का मोह त्यागकर अज्ञात तप करना, ८. लोभ का त्याग, ९. तितिक्षा. १०. आर्जव-सरलता, ११. शुचि-संयम एवं सत्य की पवित्रता, १२. सम्यक्त्व शुद्धि, १३. समाधि-प्रसन्नचित्तता, १४. आचार पालन में माया न करना, १५. विनय, १६. धैर्य, १७. संवेग-सांसारिक भोगों से भय अथवा मोक्षाभिलाषा, १८. माया न करना, १९. सदनुष्ठान, २०. संवर-पापासव को रोकना, २१. दोषों की शुद्धि करना, २२. कामभोगों से विरक्ति करना, २३. मूलगुणों का शुद्ध पालन, २४. उत्तरगुणों का शुद्ध पालन, २५. व्युत्सर्ग करना, २६. प्रमाद न करना, २७. प्रतिक्षण संयम यात्रा में सावधानी रखना, २८. शुभ ध्यान, २९. मारणान्तिक वेदना होने पर भी अधीर न होना, ३०. संग का परित्याग करना, ३१. प्रायश्चित्त ग्रहण करना, ३२. अन्त समय में संलेखना करके आराधक बनना। (समवायांग ३२)
तेतीस आशातनादेखें दशाश्रुतस्कन्ध, दशा ३ तथा समवायांग ३३ एवं श्रमणसूत्र-उपाध्याय श्री अमर मुनि।
IMPORTANT NOTES
Three self-inflictions (dand)—They are mental, vocal and physical indulgence in evil tendencies. They insult the glory of right conduct and inflict the soul.
Three conceits-(1) Conceit of wealth and grandeur, (2) Conceit of tastes, and (3) Conceit of pleasures.
Gaurava (conceit) is perverted state of mind caused by bloated ego.
Three internal thorns (shalya)(1) Deceit, (2) Nidaan or desire of gaining mundane pleasures in this and the next birth in exchange of performed religious rituals, (3) Unrighteousness or belief in false fundamentals or reality.