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ती सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
एकोनत्रिंश अध्ययन [390]
(उत्तर) ऋजुता (सरलता) से जीव काय की सरलता, भाव (मन) की सरलता, भाषा की सरलता और अविसंवाद (अवंचकता) को प्राप्त होता है। अविसंवाद-सम्पन्न जीव धर्म का आराधक होता है।
Maxim 49 (Q). Bhante! What does a jiva (soul/living being) obtain by simplicity (arjava)?
(A). By simplicity a being gains simplicity of body, simplicity of mind, simplicity of speech and becomes free of deceit. A being without deceit is a sincere follower of religion.
सूत्र ५०-मद्दवयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? __मद्दवयाए णं अणुस्सियत्तं जणयइ। अणुस्सियत्ते णं जीवे मिउमद्दवसंपन्ने अट्ठ मयट्ठाणाई निट्ठवेइ॥
सूत्र ५०-(प्रश्न) भगवन् ! मृदुता से जीव क्या प्राप्त करता है?
(उत्तर) मृदुता से जीव अनुद्धत भाव (निरभिमानता) को प्राप्त करता है। अनुद्धत जीव मृदु-मार्दवभाव से संपन्न होता है तथा आठ मदस्थानों को विनष्ट कर देता है। __Maxim 50 (Q). Bhante! What does a jiva (soul/living being) attain by modesty (mriduta)?
(A). By modesty a being gains freedom from conceit. A being free of conceit is endowed with sweetness and humility. He destroys eight kinds of conceit.
सूत्र ५१-भावसच्चेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
भावसच्चेणं भावविसोहिं जणयइ। भावविसोहीए वट्टमाणे जीवे अरहन्तपन्नत्तस्स धम्मस्स आराहणयाए अब्भुढेइ। अरहन्तपन्नत्तस्स धम्मस्स आराहणयाए अब्भुट्टित्ता परलोग-धम्मस्स आराहए हवइ॥
सूत्र ५१-(प्रश्न) भगवन् ! भाव-सत्य से जीव को क्या प्राप्त होता है?
(उत्तर) भाव-सत्य (अन्तरात्मा की सत्यता) से जीव भाव-विशुद्धि को प्राप्त करता है। भाव-शुद्धि में प्रवर्तमान जीव अरिहन्त प्रज्ञप्त धर्म की आराधना के लिए उद्यत होता है। अरिहन्त प्रज्ञप्त धर्म की आराधना के लिए उद्यत व्यक्ति परलोक धर्म का भी आराधक होता है। ___Maxim 51 (Q). Bhante! What does ajiva (soul/living being) obtain by probity of thought (bhaava-satya)?
(A). By probity of thought (truthfulness of conscience) a being gains purity of thoughts. A being with purity of thoughts exerts himself to practice the religion propagated by the Arihant (omniscient). By doing so he ensures that even in his next birth he exerts himself to the practice of the religion propagated by the omniscient.
सूत्र ५२-करणसच्चेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
करणसच्चेणं करणसत्तिं जणयइ। करणसच्चे वट्टमाणे जीवे जहावाई तहाकारी यावि भवइ॥