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[261 ] एकविंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
इक्कीसवाँ अध्ययन : समुद्रपालीय
पूर्वालोक
प्रस्तुत अध्ययन का नाम समुद्रपालीय है। इस नामकरण का कारण यह है कि इसमें समुद्रपाल के जन्म से लेकर उसके निर्वाण तक का सम्पूर्ण जीवन तथा जीवन की विशिष्ट घटनाओं का चित्रण किया गया है।
भगवान महावीर का एक श्रावक - शिष्य था । उसका नाम पालित था । पालित निर्ग्रन्थ प्रवचन का विशिष्ट ज्ञाता था । वह अंग देश की चम्पापुरी नगरी में निवास करता था ।
पालित वणिक् था। वह समुद्र - व्यापारी था । जलयानों में अपने देश का माल भरकर विदेशों (समुद्र- जल मार्ग द्वारा पार देशों) में ले जाता और वहाँ पैदा होने वाले माल को जलयानों में भरकर लाता । इस प्रकार उसका क्रय-विक्रय व्यापार (आयात-निर्यात व्यापार) अच्छा चलता था ।
एक बार वह पिहुण्ड नगर (समुद्र का तटवर्ती नगर) में पहुँचा। व्यापार के कारण उसे वहाँ अधिक समय तक रुकना पड़ा। उसकी प्रामाणिकता, व्यापार कला और व्यवहारकुशलता आदि से संतुष्ट होकर पिण्ड नगर के एक श्रेष्ठी ने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया।
अपनी नव-विवाहिता पत्नी को साथ लेकर जब वह सागर मार्ग से चम्पानगरी को लौट रहा था, तब समुद्र में - जलयान में ही उसकी पत्नी ने एक सर्वांग सुन्दर तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। समुद्र में उत्पन्न होने के कारण पुत्र का नाम समुद्रपाल रखा गया।
कालक्रमानुसार समुद्रपाल युवा हुआ और ७२ कलाओं में निष्णात हुआ। पिता ने उसका विवाह रूपिणी नाम की एक सुन्दर कन्या के साथ कर दिया । समुद्रपाल अपने भवन में रहता हुआ पत्नी के साथ दोगुन्दक देवों के समान क्रीड़ा करता हुआ सुख भोगने लगा ।
एक दिन अपने भवन के गवाक्ष में बैठा हुआ वह नगर की शोभा देख रहा था। तभी राजमार्ग पर जाते हुए एक पुरुष पर उसकी दृष्टि टिक गई।
वह वध्यपुरुष था। उसे राजा की ओर से मृत्युदण्ड मिला था । प्रचलित परम्परा के अनुसार उसे लाल कपड़े पहनाए गये थे, गले में लाल कनेर की माला थी, सम्पूर्ण शरीर पर रक्तचन्दन का लेप था तथा उसके अपराध की घोषणा करते हुए राजसेवक उसे वधस्थान की ओर ले जा रहे थे ।
समुद्रपाल तुरन्त समझ गया कि यह व्यक्ति घोर अपराधी है और उसके अपराध का दण्ड इसे दिया जा रहा है। अपने दुष्कर्म का फल यह व्यक्ति भोग रहा है।
अपराध और दण्ड, कर्म और कर्मफल की प्रक्रिया पर समुद्रपाल का चिन्तन गहरा होता चला गया। वह कर्मों के बन्धन को काटने के लिये बेचैन हो उठा। उसने समझ लिया कि विषय-भोगों से तो कर्मबन्धन और भी अधिक सुदृढ़ होते चले जायेंगे। उसके हृदय में संवेग-निर्वेद की भावनाएँ उमड़ने लगीं। श्रमणधर्म-पालन का निर्णय कर लिया और माता-पिता से अनुमति लेकर प्रव्रजित हो गया । शुद्ध श्रमणाचार का पालन करके मुक्त हुआ।
श्रमणाचार के वर्णन से तथा धार्मिक दृष्टि से तो प्रस्तुत अध्ययन महत्वपूर्ण है ही; किन्तु तत्कालीन सामाजिक और प्रचलित परम्पराओं की झाँकी के कारण सामाजिक दृष्टि से भी इसका महत्व है।
प्रस्तुत अध्ययन में २४ गाथाएँ हैं।