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In सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
एकोनविंश अध्ययन [ 224]
उसने वहाँ राजपथ पर गमन करते हुये तप-नियम-संयम के धारक, शील संपन्न, गुणों के आकर संयमी श्रमण को देखा ॥५॥ ___There, he chanced seeing a disciplined ascetic, endowed with austerities, codes, restraint, chastity and heaps of other virtues, walking on the highway. (5)
तं देहई मियापुत्ते, दिट्ठीए अणिमिसाए उ।
कहिं मन्नेरिसं रूवं, दिट्ठपुव्वं मए पुरा॥६॥ श्रमण को मृगापुत्र अपलक दृष्टि से देखता हुआ विचार करता है-मैं मानता हूँ कि ऐसा रूप इससे पूर्व भी मैंने कहीं देखा है॥६॥
Looking at the ascetic with unblinking eyes, Mrigaputra thought-I believe I have come across such appearance somewhere in the past. (6)
साहुस्स दरिसणे तस्य, अज्झवसाणंमि सोहणे।
मोहं गयस्स सन्तस्स, जाईसरणं समुप्पन्नं ॥७॥ साधु के दर्शन तथा उसके उपरान्त शुद्ध अध्यवसायों से ऊहापोह करने पर उसे जातिस्मरण ज्ञान । समुत्पन्न हुआ॥७॥
Beholding the ascetic and then pondering over pious objectives, he was blessed with Jatismaran jnana (memories of past births). (7)
देवलोग-चुओ संतो, माणुस्सं भवमागओ।
सन्निनाणे समुप्पण्णे, जाई सरइ पुराणयं॥८॥ संज्ञिज्ञान-जातिस्मरण ज्ञान होने पर उसे अपने पूर्व-जन्म का स्मरण हो आया कि मैं देवलोक से च्यवित होकर इस मनुष्य-भव में आया हूँ॥८॥
When endowed with Jatismaran jnana he became aware of the fact that he was born as a human being only after his descent from the divine realm. (8)
जाइसरणे समुप्पन्ने, मियापुत्ते महिड्ढिए।
सरई पोराणियं जाई, सामण्णं च पुराकयं॥९॥ जातिस्मरण ज्ञान समुत्पन्न होते ही महान् राज्य ऋद्धि वाले मृगापुत्र को पूर्व-जन्म में आचरित श्रमण धर्म का ज्ञान हो गया ॥९॥
Due to Jatismaran jnana Mrigaputra, the lord of a very prosperous kingdom, recalled the knowledge of the ascetic conduct (Jainism) he practiced during a past birth. (9)
विसएहि अरज्जन्तो, रज्जन्तो संजमम्मि य।
अम्मापियरं उवागम्म, इमं वयणमब्बवी-॥१०॥ विषयों से विरक्त और संयम में अनुरक्त मृगापुत्र माता-पिता के समीप आया और उनसे इस प्रकार कहने लगा- ॥ १०॥