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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
सप्तदश अध्ययन [ 198]
सत्रहवाँ अध्ययन : पापश्रमणीय
पूर्वालोक
प्रस्तुत अध्ययन का नाम पापश्रमणीय है। एक शब्द में कहा जाय तो पापश्रमण वह होता है जो सिंह वृत्ति से दीक्षा ग्रहण करके शृगाल वृत्ति से उसकी अनुपालना करता है अथवा शृगाल वृत्ति से ही श्रमणत्व धारण करता है और शृगाल वृत्ति से ही उसका पालन करता 1
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पिछले १५वें अध्ययन में श्रेष्ठ भिक्षु ( श्रमण) के लक्षण बताये गये थे और १६वें अध्ययन ब्रह्मचर्य के महत्व का विवेचन किया गया था; जबकि प्रस्तुत अध्ययन में पापश्रमण के लक्षणों का विवेचन करके साधक को उन दोषों से दूर रहने की प्रेरणा दी गई है।
यथार्थ में श्रमणत्व का पालन खांडे की धार पर चलना है। प्रतिक्षण जागरूकता, चारित्र के प्रति सजगता, साधुत्व के नियमों के प्रति प्रतिबद्धता और निरन्तर सम्यक् ज्ञान - दर्शन - चारित्र की आराधना अति आवश्यक है।
लेकिन सभी साधक धर्मशीलिया नहीं होते, कुछ सुखशीलिया भी होते हैं। ऐसे साधकों को ही पापश्रमण कहा गया है। पापश्रमण की वृत्ति प्रवृत्ति का दिग्दर्शन प्रस्तुत अध्ययन में कराया गया है।
इस अध्ययन में गाथा १ से ४ तक ज्ञानाचार से सम्बन्धित तथा गाथा ५ में दर्शनाचार, गाथा ६ से १४ तक चारित्राचार, गाथा १५-१६ में तपाचार एवं गाथा १७ - १८ में वीर्याचार में निरपेक्ष रहने वाले पापश्रमण की बाह्य प्रवृत्तियों के साथ ही उसके मानसिक चिन्तन को भी स्पष्ट किया गया है।
इस अध्ययन से यह बात भी स्पष्ट होती है कि आगम शास्त्रों में जहाँ सच्चे श्रमण के प्रति बहुमान प्रदर्शित करते हुये उसे अत्युच्च स्थान दिया गया है; वहाँ शिथिलाचारी पापश्रमण के प्रति कठोर रुख भी अपनाया गया है।
सम्पूर्ण अध्ययन का सार है - शिथिलाचार को छोड़कर सच्चे निर्दोष श्रमणत्व को पालन करने की प्ररेणा ।
प्रस्तुत अध्ययन में २१ गाथाएँ हैं।
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