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तर सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
पञ्चदश अध्ययन [176]
Considering that insults and harsh treatment are fruits of his past karmas, the patient ascetic, who is happy in his restraint, protects his own soul from indiscipline (causing inflow of karmas), avoids vexation as well as exhilaration and endures everything with equanimity, he is a true ascetic. (3)
पन्तं सयणासणं भइत्ता, सीउण्हं विविहं च दंसमसगं । __ अव्वग्गमणे असंपहिढे, जे कसिणं अहियासए स भिक्खू॥४॥
अति सामान्य शयन और आसन को स्वीकार करने वाला, सर्दी-गर्मी, डांस-मच्छर आदि के परीषहों-उपसर्गों से व्याकुल न होने वाला तथा अनुकूल संयोगों में हर्षित न होने वाला तथा समभाव से सब कुछ सहन करने वाला भिक्षु कहलाता है॥ ४॥
He who accepts most ordinary beds and seats; does not get vexed when afflicted by heat, cold, flies, mosquitoes and other insects; is not joyous in favourable conditions and endures everything with equanimity is a true ascetic. (4)
नो सक्कियमिच्छई न पूयं, नो वि य वन्दणगं, कुओ पसंसं?
से संजए सुव्वए तवस्सी, सहिए आयगवेसए स भिक्खू॥५॥ जो साधक सत्कार, पूजा और वन्दना की इच्छा भी नहीं करता, वह प्रशंसा की आकांक्षा कैसे कर सकता है? जो संयत, सुव्रती, तपस्वी, ज्ञान-दर्शन-चारित्र से युक्त है और आत्मा की गवेषणा करता है; वह भिक्षु है॥ ५॥
The aspirant, who does not even desire hospitality, adoration and homage, how can he expect praise? One who is restrained, sincere observer of vows and austerities, endowed with right knowledge-faith-conduct and indulges in spiritual pursuit is a true ascetic. (5)
जेण पुण जहाइ जीवियं, मोहं वा कसिणं नियच्छई।
नरनारिं पजहे सया तवस्वी, न य कोऊहलं उवेइ स भिक्खू॥६॥ जिस कारण से संयमी जीवन छूट जाय, जिस कारण से कषाय-नोकषायरूप सम्पूर्ण मोहनीय कर्म का बन्ध होता हो, ऐसे पुरुष-स्त्री की संगति को जो साधु सदा के लिये त्याग देता है तथा कुतूहल नहीं करता; वह भिक्षु है॥ ६॥ .
The ascetic who abandons for ever the company of such man and woman, which is detrimental to his ascetic life, which is the cause of bondage of deluding karmas (Mohaniya karma) through passions and sub-passions and who avoids curiosity is a true ascetic. (6)
छिन्नं सरं भोममन्तलिक्खं, सुमिणं लक्खणदण्डवत्थुविज्ज।
अंगवियारं सरस्स विजयं, जो विज्जाहिं न जीवइ स भिक्खू॥७॥ जो साधक छिन्नविद्या-वस्त्र अथवा पात्र के अथवा कटे-फटे भाग से शुभाशुभ बताना, स्वर, भौम, अन्तरिक्ष, स्वप्न, लक्षण, दण्ड, वास्तु, अंग विकार, स्वर विज्ञान आदि विद्याओं से आजीविका नहीं चलाता; वह भिक्षु है॥ ७॥