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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
Demertorious karmas move away from him like water flows away from a high place. (9)
[81 ] अष्टम अध्ययन
जगनिस्सिएहिं भूएहिं, तसनामेहिं थावरेहिं च । नो सिमारभे दंड, मणसा वयसा कायसा चेव ॥ १० ॥
संसार में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, ( उनके द्वारा सताये जाने पर भी) उनके प्रति मन-वचन-काय से हिंसा रूप दण्ड का समारम्भ न करे ॥ १० ॥
He (an ascetic) should refrain from using violence through mind, speech or body as punishment for all mobile and immobile beings of the world (even when tormented by them). (10)
सुद्धेसणाओ नच्चाणं, तत्थ ठवेज्ज भिक्खू अप्पाणं । जाया घासमेसेज्जा, रसगिद्धे न सिया भिक्खाए ॥ ११ ॥
शुद्ध एषणाओं को जानकर भिक्षु उनका सावधानी से आचरण करे। भिक्षाजीवी साधु संयम यात्रा के सुचारु निर्वाह के लिये आहार की गवेषणा करे लेकिन रसों में गृद्ध न हो ॥ ११॥
An ascetic should understand the true precautions of alms collection and observe them with all sincerity and care. An ascetic subsisting on alms should explore for food only for the purpose of proper sustenance on the path of restraint; however, he should refrain from being epicure. (11)
पन्ताणि चेव सेवेज्जा, सीयपिण्डं पुराणकुम्मासं ।
अदु वुक्क पुलागं वा, जवणट्ठाए निसेवए मंथुं ॥ १२ ॥
भिक्षाजीवी साधु संयमी जीवन यापन के लिये बचा खुचा नीरस आहार, शीत पिंड, पुराने कुल्माष-उड़द अथवा सारहीन, रूखा बेर या सत्तू के चूर्ण आदि का सेवन करे ॥ १२ ॥
An ascetic subsisting on alms should eat only leftover tasteless food, stale food or cold rice, old udad (a pulse; Phaseolus mungo ) or blend, dry and powdered berries or gram for his survival. (12)
'जे लक्खणं च सुविणं च, अंगविज्जं च जे परंजन्ति ।
न हु ते समणा वुच्चन्ति', एवं आयरिएहिं अक्खायं ॥ १३ ॥
आचार्यों ने ऐसा कहा है कि जो साधु शुभाशुभ लक्षण सूचक, स्वप्न फल और अंगस्फुरण विद्या का प्रयोग करते हैं, वे श्रमण कहे जाने योग्य नहीं हैं ॥ १३॥
Acharyas (preceptors) have said that those ascetics who (for prediction and otherwise) interpret auspicious and inauspicious marks on body, dreams and foreboding changes in body parts (Angavidya) are not worthy of being called ascetics. (13)
इहजीवियं अणियमेत्ता, पब्भट्ठा समाहिजो एहिं ।
ते कामभोग-रसगिद्धा, उववज्जन्ति आसुरे काए ॥ १४ ॥
जो वर्तमान जीवन में अनियमित रहकर समाधियोग से भ्रष्ट हो जाते हैं, ऐसे लोग कामभोग और रसों में लोलुप आसुर काय में उत्पन्न होते हैं ॥ १४॥