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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
आमिषरूप भोगों से विषाद को प्राप्त तथा अपने हित और कल्याण में विपरीत बुद्धि का धारक, मन्द मति, मूर्ख जीव वैसे ही कर्मों से बँध जाता है, जैसे श्लेष्म (कफ) में मक्खी फँस जाती है॥ ५ ॥
अष्टम अध्ययन [ 80 ]
Engulfed by grief due to indulgence in flesh-like (prohibited) mundane pleasures and having an attitude contrary to his own benefit and beatitude, a dimwit and stupid being is entrapped in karmas exactly like a fly stuck in phlegm. (5) दुपरिच्चया इमे कामा, नो सुजहा अधीरपुरिसेहिं ।
अह सन्ति सुव्वया साहू, जे तरन्ति अतरं वणिया व ॥ ६ ॥
इन कामभोगों का परित्याग करना बहुत कठिन है। अधीर व्यक्ति इनका त्याग नहीं कर पाते। किन्तु जो शांत - सुव्रती साधु होते हैं, वह इन कामभोगों को उसी प्रकार सहजता से त्याग कर देते हैं; जैसे पोतवणिक् सागर को पार कर जाते हैं ॥ ६॥
It is very difficult to renounce these worldly pleasures. Impatient persons fail to abandon them. But the calm ascetics, accomplished in observance of vows, renounce them with ease like sea-faring merchants conveniently cross a sea. (6)
'समणा सु' एगे वयमाणा, पाणवहं मिया अयाणन्ता ।
मन्दा नरयं गच्छन्ति, बाला पावियाहिं दिट्ठीहिं ॥ ७ ॥
समान
कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि 'हम श्रमण हैं' किन्तु मिथ्यात्वग्रस्त मंद बुद्धि वाले पशु अज्ञानी प्राणि-वध को हिंसा नहीं मानते, अपनी इस पापदृष्टि के कारण वे नरक गति में जाते हैं॥७॥
Some individuals claim to be ascetics but blockheads, unrighteous and ignorant like animals, as they are, they do not accept killing of living beings to be violence. Due to this sinful attitude they go to hell. (7)
'न हु पाणवहं अणुजाणे, मुच्चेज्ज कयाइ सव्वदुक्खाणं' । एवारिएहिं अक्खायं, जेहिं इमो साहुधम्मो पन्नतो ॥ ८ ॥
साधु धर्म की प्ररूपणा करने वाले आर्य पुरुषों - तीर्थंकरों ने ऐसा कहा है कि हिंसा (असत्य, चोरी, अब्रह्म, परिग्रह) की अनुमोदना करने वाले कभी भी सभी दुःखों से मुक्त नहीं हो सकते ॥ ८ ॥
The noble ones (Tirthankaras), who have propagated the ascetic code, have said that those who even support killing (falsehood, stealing, non-celibacy and covetousness) can never be free from all miseries. (8)
पाणे य नाइवाएज्जा, से 'समिए' त्ति वुच्चई ताई ।
ओ से पावयं कम्मं, निज्जाइ उदगं व थलाओ ॥ ९ ॥
जो साधक प्राणियों की हिंसा नहीं करता वह अपनी आत्मा और सभी जीवों का रक्षक तथा समितिवान् होता है। उससे पापकर्म उसी प्रकार दूर हो जाते हैं जिस प्रकार ऊँचे स्थान से जल बहकर दूर चला जाता है ॥ ९॥
An aspirant, who does not harm living beings, becomes the protector of his soul as well as all living beings. He is also an observer of self-regulations (samitivaan).