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[71] सप्तम अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र ती
The third one returned losing all his capital. This is a social parable. Know the same to be true for religious life too. (15)
माणुसत्तं भवे मूलं, लाभो देवगई भवे।
मूलच्छेएण जीवाणं, नरग-तिरिक्खत्तणं धुवं ॥१६॥ मूलधन मनुष्य-भव है। लाभ देव गति की प्राप्ति है। और मूल के नाश से प्राणियों को निश्चित ही तिर्यंच और नरक गति में जाना पड़ता है॥ १६॥
Birth as a human being is the capital. Profit is the attainment of divine rebirth. And loss of the capital certainly leads everyone to a rebirth in animal genus and infernal genus. (16)
__दुहओ गई बालस्स, आवई वहमूलिया।
देवत्तं माणुसत्तं च, जं जिए लोलयासढे॥१७॥ बाल (अज्ञानी) प्राणी की आपदामूलक नरक और तिर्यंच-ये दो ही गति होती हैं; क्योंकि वह लोलुपता और धूर्तता करके मनुष्य और देव गति को पहले ही हार चुका है॥ १७॥
An ignorant can have only two miserable states of rebirth-as an animal or an infernal being. This is because; due to his lust and cunning he has already lost the chance of a rebirth as a human being as well as a divine being. (17)
- तओ जिए सई होइ, दुविहं दोग्गइं गए।
दुल्लहा तस्स उम्मज्जा, अद्धाए सुचिरादवि॥१८॥ दो प्रकार की दुर्गति (नरक और तिर्यंच गति) को प्राप्त प्राणी का उन गतियों से उबरना (निकलना) बहुत कठिन है, उसे वहाँ दीर्घकाल तक रहना पड़ता है॥ १८॥
Taking birth in two lower states (infernal and animal), it is very difficult for a being to come out of them; he has to remain there for a very long time. (18)
एवं जियं सपेहाए, तुलिया बालं च पंडियं।
मूलियं ते पवेसन्ति, माणुसं जोणिमेन्ति जे॥१९॥ इस तरह सुगतियों को हारे हुये प्राणियों को देखकर तथा ज्ञानी और अज्ञानी की तुलना कर, जो मानव-योनि में आते हैं, वे उस वणिक् के समान हैं जो मूलधन लेकर वापस लौट आया॥ १९ ॥
Seeing and knowing about the beings having lost the noble states and comparing the enlightened and the ignorant, those who take birth as a human beings are like the merchant who returned home with his capital intact. (19)
वेमायाहिं सिक्खाहिं, जे नरा गिहिसुव्वया।
उवेन्ति माणुसं जोणिं, कम्मसच्चा हु पाणिणो॥२०॥ विविध परिमाण (प्रकार) वाली शिक्षाओं को धारण कर जो मनुष्य घर में रहकर भी सुव्रती हैं, सुव्रतों का पालन करते हैं, वे पुनः मनुष्य योनि में जन्म लेते हैं; क्योंकि सभी प्राणी कर्म-सत्य होते हैं। कृत कर्मों का फल अवश्य पाते हैं ॥ २०॥